Wednesday, November 10, 2010

पूरी उमर खपा दी इक घर तलाशने में

पग भर ज़मीन डग भर अंबर तलाशने में
पूरी उमर खपा दी इक घर तलाशने में

पल प्यार के गँवाए बस देखने में दरपन
श्रृंगार   के   गँवाए   जेवर  तलाशने   में

करते रहे हैं वादा वो ताज के लिए पर
अटके   हुए  हैं  संगेमरमर   तलाशने   में

चट्टान काट आई मैदान लाँघ आई
बालू हुई नदी अब सागर तलाशने में

तम से भरी डगर से तो  आगए निकलकर
भटके तेरी गली में तेरा दर तलाशने में

नीलाम  हो गया है अपना हरेक सपना
तेरी शान में  दमकते गौहर तलाशने में 

सब चूर चूर होते हैं ख्वाब लड़कियों के
होती है भूल कोई जब वर तलाशने में

करवट बदल बदल कर कटती है रात बाकी
जब नीद टूटती है बिस्तर तलाशने में

माया के जाल में अब वे भी फँसे हुए हैं
रहना था लीन जिनको ईश्वर तलाशने में

मंदिर बनाने वाले मस्जिद बनाने वाले
उलझे हुए हैं अबतक पत्थर तलाशने में

वह मिल नहीं सकेगा तुम्हें  'भारद्वाज' बाहर
पाओगे उसको अपने अंदर तलाशने में

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, October 31, 2010

खड़े रहकर क़तारों में भी अब बारी नहीं आती

खड़े रहकर क़तारों में भी अब बारी नहीं आती
हमें क्रम तोड़ बढ़ने की कलाकारी नहीं आती

गँवा कर उम्र सारी हम लुटा बैठे हैं तन मन धन
वो कहते हैं हमें रस्मे वफादारी नहीं आती

उतरती आत्मा पहले किसी किरदार के अंदर
अदा संवाद करने से अदाकारी नहीं आती 

कलम को डूबना पड़ता लहू में और आँसू में 
फ़क़त कुछ शब्द रचने से गज़लकारी नहीं आती

नहीं रखता है जो इंसान अपने पाँव धरती पर  
उसे  खाए बिना  ठोकर समझदारी नहीं आती 

पिरोते हैं सुई में प्रेम के भी रेशमी धागे 
न हों वे रेशमी धागे तो गुलकारी नहीं आती 

स्वयं बनता है मिट्टी एक माली मिलके मिट्टी में 
महज बीजों से 'भारद्वाज' फुलवारी नहीं आती 

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, October 22, 2010

अकेलापन न देना

चाहे अवलंबन न देना
पर अकेलापन न देना

आग सा जलता रहेगा    
प्रिय बिना यौवन न देना

भीख माँगे मृत्यु से जो
वह विवश जीवन न देना

एक पत्थर के ह्रदय में
प्यार की धड़कन न देना

रूप को अपरूप कर दे
धुंध में दर्पण न देना

माँग में सिन्दूर के बिन
चूड़ियाँ कंगन न देना

नित्य 'भारद्वाज' बिलखे
माँ बिना बचपन न देना

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, October 12, 2010

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक

वक़्त  अमृत की नदी को कर रहा  विषमय  
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक

घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर  सिर्फ एक चिराग है मालिक

हर नज़र ठहरी हुई है  बाज सी उस पर  
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक

थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक

रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता  बाग़ है मालिक

बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग  है मालिक

पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक

क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो  पाग है मालिक

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, September 26, 2010

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है
गिराता है  हमें   अपना   उठाने   और   आता   है

झपट्टा मार कर  सहसा छिनाता वक़्त हाथों से
कभी जब मुँह तलक रोटी का कोई कौर आता है

अचानक आँधियाँ आतीं कि गिरते ओले बेमौसम 
उमगती आम की डालों पे जब भी बौर आता है 

कदम जिस ओर भी बढ़ते नज़र जिस ओर भी उठती
नज़र चोरों का चौराहा ठगों का ठौर आता है

सुबकती माथे की बिंदी ठिठकते पाँव के बिछुआ
बिरहिनी ज़िन्दगी में पर्व जब गनगौर आता है

उभरता शक निगाहों में पनपती ईर्षा मन में
किसी सिर पर सफलताओं का जब भी मौर आता है

है मीठा स्वाद सौंधी गंध 'भारद्वाज' रिश्तों की
यहीं का बन के रह जाता जो भी इंदौर आता है

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, September 13, 2010

कहीं इस ज़िन्दगी में जश्न की तैयारियाँ भी हैं

कहीं कमजोरियाँ  भी हैं कहीं लाचारियाँ  भी हैं
मगर  इस ज़िन्दगी में जश्न की तैयारियाँ भी हैं

गरज ये है निगाहें इस ज़मीं पर ढूँढती हैं क्या
छिपे शबनम के मोती भी दबीं चिनगारियाँ भी हैं

रखा है उम्र ने हर बोझ अपना टाँग कन्धों पर
बंधीं  मजबूरियाँ भी हैं बंधी खुद्दारियाँ भी हैं

लिखे हैं भूख के किस्से अभावों की इबारत भी
मगर मासूम अधरों पर खिली किलकारियाँ भी हैं

उगे इस दिल की धरती पर तो अक्सर प्यार के पौधे
ज़माने के मगर हाथों में पैनी आरियाँ भी हैं

यहाँ पलटे हैं जब जब भी किसी इतिहास के पन्ने
जहाँ कुर्बानियाँ लिक्खीं वहाँ गद्दारियाँ भी हैं 

इरादों को अटल रखना शिखर रखना निगाहों में 
डगर में वन बबूलों के भी हैं फुलवारियाँ भी हैं 

समय का चक्र हरदम घूमता चारों तरफ अपने
अमावस इक तरफ है इक तरफ उजियारियाँ भी हैं

बसी है इक अलग दुनिया ही 'भारद्वाज' इस दिल में
दहकती वादियाँ हैं तो महकती क्यारियाँ भी हैं

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, September 5, 2010

कभी जब ज़िन्दगी की राह में तनहाइयाँ आतीं

महक सौंधी  सी लेकर जब कभी पुरवाइयाँ आतीं
उभर  यादों में सहसा गाँव की अमराइयाँ आतीं

खयालों   में   अचानक  नाम   कोई  कौंध  जाता है
कभी जब हिचकियाँ आतीं कि जब अंगडाइयां आतीं 

न तो आहट कहीं  होती न दस्तक ही कहीं देतीं 
पलक के द्वार दिल के दर्द की जब झाइयाँ आतीं 

कभी तो दिल धड़कता है कभी होतीं पलक गीली 
कुँवारे द्वार पर जब गूँजतीं शहनाइयाँ आतीं 

शहर से गाँव आने पर कुशलता पूछने अक्सर 
मोहल्ले भर की चाची ताइयाँ भौजाइयाँ आतीं 

अँधेरा देखते ही संग अपना छोड़ जाती  हैं 
उजाले में सदा जो साथ में परछाइयाँ आतीं 

लगा लें लोग कितने ही मुखौटे एक चेहरे पर
समय के सामने खुद एक दिन सच्चाइयाँ आतीं

सफलता का कोई भी रास्ता सीधा नहीं होता 
कहीं गहरे कुएँ खाई कहीं ऊँचाइयाँ  आतीं 

दिशा अपनी बदल लेता है 'भारद्वाज' हर रिश्ता 
कभी जब ज़िन्दगी  की राह में तनहाइयाँ आतीं 

चंद्रभान भारद्वाज    

Wednesday, August 25, 2010

पहले तो न थी

 
धुंध जो वातावरण में आज पहले तो न थी;

रोशनी की हर किरण रंगवाज  पहले तो न थी।



लाँघ आई सरहदों को आदमी के नाम पर,

कुर्सियों की कैद में आवाज पहले तो न थी।



कर गई सारा शहर पल में हवाले आग के,

यह हवा इतनी करिश्मेबाज पहले तो न थी।



बांटती अपने लिए ख़ुद फूलमालाएं यहाँ,

मूर्ति वन्दनवार की मोहताज पहले तो न थी ।



कौन कब किसको बना लेगा निशाना क्या पता,

दाँव पर हर आदमी की लाज पहले तो न थी।



शर्त पहले ही रखी है ताज के निर्माण की,

बात ऐसी प्यार में मुमताज पहले तो न थी।



सेंकते जलती चिता पर लोग अपनी रोटियां,

ज़िन्दगी खुदगर्ज 'भारद्वाज' पहले तो न थी।



चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, August 10, 2010

सगाई टूट जाती है

उतरती है अँगूठी तो सगाई टूट जाती है
उतरतीं चूड़ियाँ तो इक कलाई टूट जाती है

किसी भी प्यार के अनुबंध में शर्तें नहीं होतीं
रखीं हों  शर्त तो फिर आशनाई टूट जाती है

सहज विश्वास पर सहती समय के सब थपेड़ों को
मगर शक पर उमर भर की मिताई टूट जाती है

बुनाई में अगर डाले नहीं हों प्यार के फंदे
उलझती ऊन अक्सर या सलाई टूट जाती है

रुई अच्छी धुनी अच्छी भरी अच्छी सिली अच्छी
तगाई प्यार बिन हो तो रजाई टूट जाती है

समय के कठघरे में जब कभी देखा है दोनों को
तनी रहती बुराई पर भलाई टूट जाती है

बिखरता वो भी 'भारद्वाज' अक्सर टूट किरचों में
कभी तस्वीर जब उसकी बनाई अटूट जाती है

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, August 1, 2010

अपनी निगाह को कभी ओछा नहीं किया

जिसको निभा सके न वह वादा नहीं किया
अपनी निगाह को कभी ओछा नहीं  किया

गुजरे जहाँ से हम वहाँ मौसम बदल गया
हमने कभी हवाओं का पीछा नहीं किया

खुद ही बनाये रास्ते हर लीक तोड़ कर
अपने ज़मीर का कहीं सौदा नहीं किया

चादर हमारी इसलिए उजली रखी हुई
हमने गुनाह पर कोई परदा नहीं किया

सूली चढ़ा कभी कभी दीवार में चुना
सिर प्यार ने कभी मगर नीचा नहीं किया

वह शख्स जान पायेगा क्या  दर्द भूख का
जिसने तमाम उम्र इक फाका नहीं किया

कुछ घाव 'भारद्वाज' बातों के भरे नहीं
हमने दवा के नाम पर क्या क्या नहीं किया

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, July 21, 2010

हुनर जानते हैं

समय  के   गुजरते   प्रहर  जानते  हैं 
कि हम ज़िन्दगी  का हुनर जानते हैं

जरूरत नहीं मील के पत्थरों की
हमारे कदम हर डगर जानते हैं

दिशा जानते हैं दशा जानते हैं
हवा बह रही है किधर जानते हैं

खड़ी बीच में एक दीवार ऊँची
उधर की मगर हर खबर जानते हैं 

सदा  फूस  के   ढेर  को  ढूँढती  हैं 
कुटिल चिनगियों की नज़र जानते हैं 

बढ़ी है उमर और हर घूँट पीकर 
दिया है समय ने ज़हर जानते हैं 

पड़े हैं कदम जिस जगह पर हमारे 
मने नित्य उत्सव उधर जानते हैं 

कथा सिलवटों की व्यथा करवटों की 
कहाँ क्या हुआ रात भर जानते हैं 

निभाया बहुत ज़िन्दगी की ग़ज़ल को 
रही कुछ न कुछ पर कसर जानते हैं 

 चंद्रभान भारद्वाज 

Wednesday, July 7, 2010

टूट जाती है

समय की मार से अल्हड़ जवानी टूट जाती है  
 लदा हो बोझ ज्यादा तो कमानी टूट जाती है 

ठहरने ही नहीं देती किसी को वेग में अपने 
नदी मुड़ती   जहाँ उसकी रवानी टूट जाती है

समय के वक्ष पर करवट बदलती जब नई धारा 
बनी थी लीक जो सदियों पुरानी टूट जाती है 

कसौटी पर परखते वक़्त बस इतना समझ लेना 
तनिक शक पर मुहब्बत की कहानी टूट जाती है 

अगर टूटा कभी कोई कुँवारी आँख का सपना 
कुँवारे प्यार की हर इक निशानी टूट जाती है 

महकती है भले ही रात भर प्रिय की प्रतीक्षा में 
सवेरे तक मगर वह रातरानी टूट जाती है 

हदों को तोड़ आती जब सड़क पर बात आँगन की 
बनी दीवार ऊँची खानदानी टूट जाती है 

अचानक मौत अपना खेल दिखला कर चली जाती 
सड़क पर जब नज़र की सावधानी टूट जाती है 

उछलना कूदना अच्छा न 'भारद्वाज' इस वय में 
लचक कर रीढ़ की हड्डी पुरानी टूट जाती है 

चंद्रभान भारद्वाज     

Sunday, June 20, 2010

तो क्या करता

मैं सच को इस तरह साबित नहीं करता तो क्या  करता
कदम  अपने   अँगारों   पर  नहीं   धरता  तो क्या करता  

लगा दे  दाँव  पर  जब  प्यार  अपनी  मान  मर्यादा  
निछावर प्राण फिर उस पर नहीं करता तो क्या करता

सितम   जीने   नहीं   देता  रहम  मरने   नहीं  देता
अगर इंसान जीते जी नहीं मरता तो क्या करता 

न तो जड़ ने रखा मतलब न रक्खा डाल ने रिश्ता 
बता सूखा हुआ पत्ता नहीं झरता तो क्या करता 

कोई रिश्ता अगर कमजोर नस बनकर उभर आए
तो उस पर उँगली रखने से नहीं डरता तो क्या करता 

रहीं कमजोरियाँ उसकी मगर सिर पर   मढ़ीं मेरे
मैं उसका खामियाजा गर नहीं भरता तो क्या करता

प्रणय में दर्द जब आनंद का अहसास देता हो
तो 'भारद्वाज' पीड़ा को नहीं वरता तो क्या करता

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, June 11, 2010

बलुआ धरती पानी सी लगती

मृग तृष्णा में  बलुआ धरती  पानी सी लगती
छलना अक्सर सच की एक कहानी सी लगती

कोख किराये पर मिलती है अब बाजारों में
मूल्यों की हर बात यहाँ बेमानी सी लगती 

एक छलाँग लगाकर कल आकाश छुआ हमने 
पर ऐसी हर कोशिश  अब  नादानी सी लगती 

शंकाओं  ने  बोये  ऐसे   बीज  विचारों   में 
सत्य कहानी लेकिन गलत बयानी सी लगती 

कदम कदम पर जाल छलावों और कुचक्रों के 
मीठे बोलों के पीछे शैतानी  सी लगती 

प्रश्न खड़े हैं कपड़ा रोटी और मकानों के 
उत्तर कुटिल समय की आनाकानी सी लगती 

भाषा  भेष  और  भूषा  में  ऐसी   बौराई
हिन्दुस्तानी पीढ़ी इंग्लिस्तानी सी लगती 

पहले देखा और न पहले परिचय था कोई 
लेकिन वह सूरत जानी पहचानी सी लगती 

जब भी   'भारद्वाज' करे दुःख दर्दों की बातें 
जाने क्यों वह अपनी रामकहानी सी लगती 

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, May 11, 2010

हो नहीं सकता

बराबर उसके कद के यों मेरा कद हो नहीं सकता
वो तुलसी हो नहीं सकता मैं बरगद हो नहीं सकता

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले 
मैं ऐसी कोई भी कमजोर सरहद हो नहीं सकता 

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है 
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता 

लिए हो फूल हाथों में बगल में हो छुरी लेकिन 
महज सम्मान करना उसका मकसद हो नहीं सकता 

उफनकर वो भले ही तोड़ दे अपने किनारों को 
 कभी बरसात का नाला महानद हो नहीं सकता



ख़ुशी का अर्थ क्या जाने वो मन कि शांति क्या समझे
बिहंसता देख बच्चों को जो गदगद हो नहीं सकता

है 'भारद्वाज' गहरा फर्क दोनों के मिज़ाज़ों में
वो अब सत हो नहीं सकता मैं अब बद हो नहीं सकता

चंद्रभान भारद्वाज 

    

Tuesday, May 4, 2010

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे
जो  इमली  अमरूदों   आमों   वाले बाग़ रहे

उन कदमों को पर्वत या सागर क्या रोकेंगे
जिनकी आँखों में पानी सीने में आग रहे

अँधियारे आँगन में रहतीं सपनों की किरणें 
जैसे   पूजा घर    में  जलता  एक चिराग   रहे  

कुछ उजले महलों में रहकर भी काले निकले
कुछ काजल की कोठी में रहकर बेदाग़ रहे 

केवल हाथ मिलाने भर से खून हुआ नीला
उनकी आस्तीन में अक्सर  ज़हरी नाग रहे

साँसों की रथयात्रा हरदम रहती है जारी 
जीवन की पीछे चाहे जितने खटराग  रहे 

इतनी 'भारद्वाज' रही प्रभु से विनती अपनी 
सिर पर छाँव रहे न रहे पर सिर पर पाग रहे 

चंद्रभान भारद्वाज   

Saturday, April 24, 2010

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ से शिकायत भी नहीं कोई

वसीयत भी नहीं कोई   विरासत भी  नहीं कोई
हमें ऐ  ज़िन्दगी तुझ से शिकायत भी नहीं कोई

रहा खुद पर भरोसा या रहा है सिर्फ ईश्वर पर
सिवा इसके हमारे पास ताकत भी नहीं कोई

मिले बस चैन दिन का और गहरी नीद रातों की
हमें अतिरिक्त इसके और चाहत भी नहीं कोई

खड़ा है कठघरे में सिर्फ अपना सच गवाही को
हमारे पक्ष में करता वकालत भी नहीं कोई

करे जो दूध का तो दूध पानी का करे पानी
बिके सब हंस अब उनमें दयानत भी नहीं कोई

हवा का देख कर रुख लोग अपना रुख बदलते हैं
हवा को ही बदल दे ऐसी हिकमत भी नहीं कोई

हमारे नाम का उल्लेख 'भारद्वाज' हो जिसमें
कहानी भी नहीं कोई कहावत भी नहीं कोई

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, April 6, 2010

उनकी नज़र में खास बन जाते

तमन्ना थी कि हम उनकी नज़र में खास बन जाते 
कभी   उनके   लिए   धरती   कभी आकाश बन जाते 

अगर वे  प्यास  होते तो ह्रदय  की तृप्ति  बनते हम 
अगर वे तृप्ति होते तो अधर की प्यास बन जाते

समय की चोट से आहत ह्रदय यदि टूटता उनका 
परम विश्वास   बनते या  चरम उल्लास  बन   जाते 

भिगोती जब किसी की याद पलकों के किनारों को 
उमड़ते  प्यार  में   डूबा  हुआ   अहसास  बन   जाते 

समय की चाल पर जो ज़िन्दगी की हारते बाजी 
जिताने के लिए उनको तुरुप का ताश बन जाते 

पड़े होते अगर वीरान में बनकर कहीं पत्थर 
वहाँ हर ओर उनके हम मुलायम घास बन जाते 

दिखाई हर तरफ उनको ये 'भारद्वाज' ही देता 
बिठा कर केंद्र में उनको परिधि या व्यास बन जाते 

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, March 26, 2010

वो गुजरता है पागल हवा की तरह

राह में जिसकी जलते शमा की तरह  
वो गुजरता है पागल हवा की तरह

छलछलाते  हैं  आँसू  अगर   आँख में
पीते  रहते  हैं  कड़वी  दवा  की  तरह 

करना मुश्किल उसे धड़कनों से अलग 
प्राण  लिपटे  तने  से लता की तरह 

प्यार का पुट न हो ज़िन्दगी में अगर
 तो वो लगती है बंजर धरा की तरह 

इक नियामत सी लगती थी जो ज़िन्दगी 
कट  रही  एक   लम्बी  सजा  की तरह 

उड़  गए  संग  झोंकों  के  बरसे  बिना 
जो  घुमड़ते  रहे   थे   घटा   की  तरह

एक  पत्थर  की   मूरत   पसीजी  नहीं 
पूजते   हम   रहे   देवता   की    तरह

हमने प्रस्ताव ठुकरा दिया इसलिए
प्यार भी मिल रहा था दया की तरह

सूझता ही न अब कुछ 'भरद्वाज' को
प्यार सिर पर चढ़ा है नशा की तरह

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, March 20, 2010

आह भी भरने नहीं देता

कसकते हैं मगर इक आह भी भरने नहीं देता 
ज़माना घाव को भी घाव अब कहने नहीं देता 

महत्वाकांक्षाएं  तो   खड़ी   हैं   पंख    फैलाए  
बिछाकर जाल बैठा जग उन्हें उड़ने नहीं देता

कभी तो धुंध ने घेरा कभी घेरा कुहासे ने
अँधेरा अब उजाले को कहीं रहने नहीं देता

नदी के स्रोत पर ही रुक रहा है धार का पानी
मुहाना यार आगे धार को बहने नहीं देता

हुई है इसलिए बोझिल हमारी रीढ़ की हड्डी
विनय उठने नहीं देती अहम् झुकने नहीं देता

समझ पाए नहीं हम आचरण अब तक ज़माने का
कभी जीने नहीं देता कभी मरने नहीं देता

है 'भारद्वाज' जलने को मगर धुँधुआ रही केवल 
समय इस ज़िन्दगी की आग को जलने नहीं देता 

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, March 14, 2010

घर को घर क्या कहें

ईंट पत्थर का है घर को घर क्या कहें
इक अकेले   सफ़र को सफ़र   क्या कहें

कोई   आहट   नहीं   कोई दस्तक   नहीं
बिन प्रतीक्षा रहे दर को दर क्या कहें

जो   तरसता रहा   प्यार की बूँद   को
एक प्यासे अधर को अधर क्या कहें

देख कर   भी   लगे   जैसे   देखा   नहीं
उस  उचटती नज़र को नज़र क्या कहें  

जिसमें जीने का जज्बा बचा ही नहीं
ऐसे मुर्दा जिगर को जिगर क्या कहें

कुछ दिशा का पता है न मंजिल पता
इक भटकते बशर को बशर क्या कहें

छोड़ हमको किनारे पे खुद मिट गई
उस उफनती लहर को लहर क्या कहें

जिसकी गलियों में यादें दफ़न हो गईं
ऐसे   बेदिल शहर को शहर   क्या कहें

जो   कटी है   'भरद्वाज'   प्रिय के बिना
उस अभागिन उमर को उमर  क्या कहें

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, March 12, 2010

है बहुत मुश्किल

उजड़ती बस्तियों को फिर बसाना है बहुत मुश्किल
बिलखती आँख  में सपने   सजाना  है बहुत मुश्किल   

बहुत  आसान   आलीशान   भवनों  का   बना  लेना
किसी दिल में जगह थोड़ी बनाना है बहुत मुश्किल 

जहाँ   कंक्रीट  के घर हों लगे   हों पेड़ प्लास्टिक के 
परिंदे को वहाँ तिनके जुटाना है बहुत मुश्किल

भले ही फूल कागज़ के सजा लें आप गमलों  में
तितलियों को मगर उन पर बिठाना है बहुत मुश्किल

क़तर कर पंख पिंजड़े में रखा हो जिस परिंदे को
उसे आजाद करके भी उड़ाना है बहुत मुश्किल

पिता हर एक बेटे को उठाता रोज कन्धों पर
पिता का बोझ बेटों को उठाना है बहुत मुश्किल

सदी ने कर दिया है आदमी इतना अपाहिज अब
बिना बैसाखियों के पग बढाना है बहुत मुश्किल

अगर बाहर लगी तो डाल कर पानी  बुझा सकते
लगी हो आग दिल में तो बुझाना है बहुत मुश्किल

अगर सोया है 'भारद्वाज' तो वह जाग जाएगा
बहाना कर रहा हो तो जगाना है बहुत मुश्किल

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, March 1, 2010

फूस पर चिनगारियों का नाम हो जैसे

फूस पर चिनगारियों का नाम हो जैसे 
ज़िन्दगी दुश्वारियों का नाम हो जैसे 

पेड़ अब होने लगा है छाँह के काबिल 
पर तने पर आरियों का नाम हो जैसे  

आह आँसू करवटें तड़पन प्रतीक्षाएं
प्यार ही सिसकारियों का नाम हो जैसे 

कुर्सियों पर लिख रहे हैं लूट के  किस्से 
हर डगर पिंडारियों का नाम हो जैसे 

नाम अपना भी वसीयत में लिखा था कल 
आज सत्ताधारियों का नाम हो जैसे 

दुश्मनी तो दुश्मनी है क्या कहें उसकी 
यारियाँ गद्दारियों का नाम हो जैसे 

लोग 'भारद्वाज' कहते हों भले जनपथ 
पर वहाँ जरदारियों का नाम हो जैसे  

चंद्रभान भारद्वाज   

Thursday, February 25, 2010

ज़िन्दगी फुलवारियों का नाम हो जैसे

होंठ पर किलकारियों का नाम हो जैसे
ज़िन्दगी फुलवारियों का नाम हो जैसे

मन भिगोया तन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे

आस के  अंकुर उगे कुछ कोपलें फूटीं
स्वप्न कोई क्यारियों का नाम हो जैसे

बाँटती फिरती हँसी को और खुशियों को
उम्र  जीती  पारियों   का नाम   हो  जैसे 

टांक  कर रक्खीं  ह्रदय में सब मधुर यादें
मन सजी गुलकारियों का नाम हो जैसे

वो बसे जब से हमारे गाँव में आकर 
हर गली गुलजारियों का नाम हो जैसे 
 
ज्ञान  'भारद्वाज'  बैठा  भूलकर  उद्धव 
ध्यान में वृज-नारियों का नाम हो जैसे

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, January 13, 2010

नया अंदाज़ रखना

नए तेवर नया अंदाज़ रखना; 
कहन सच्ची खरी आवाज़ रखना. 

भले ही पंख हों छोटे तुम्हारे, 
सदा ऊँची मगर परवाज़ रखना. 

कभी भूखा कभी प्यासा रखेगी, 
मगर इस ज़िन्दगी पर नाज़ रखना. 

दुआएँ उनकी फलती फूलती है, 
न पुरखों को नज़र- अंदाज़ रखना. 

रहेगी ज़िन्दगी हर वक़्त जिंदा, 
कहीं दिल में कोई मुमताज़ रखना. 

बिना बोले जो मन की बात समझे, 
कहीं ऐसा कोई हमराज रखना. 

ग़ज़ल का हो अगर शौक़ीन बेटा, 
तो उसका नाम 'भारद्वाज' रखना. 

चंद्रभान भारद्वाज  

Tuesday, January 12, 2010

बैठा हुआ हूँ

नदी को पार कर बैठा हुआ हूँ; 
सभी कुछ हार कर बैठा हुआ हूँ. 

मिले बिन मान के ऐश्वर्य सारे,  
उन्हें इनकार कर बैठा हुआ हूँ. 

मना पाया न रूठी ज़िन्दगी को, 
बहुत मनुहार कर बैठा हुआ हूँ. 

मुझे मझधार में जो छोड़ आया, 
उसे मैं तार कर बैठा हुआ हूँ. 

बहा कर आ गया हूँ सब नदी में,
जो भी उपकार कर बैठा हुआ हूँ. 

उधर सब मन की मर्ज़ी कर रहे हैं, 
इधर मन मार कर बैठा हुआ हूँ. 

बिना अपराध के भी हर सजा को,
सहज स्वीकार कर बैठा हुआ हूँ. 

ज़माना इसलिए नाराज  मुझ से,
किसी को प्यार कर बैठा हुआ हूँ.

अँधेरा हो न 'भारद्वाज' हावी,
दिया तैयार कर बैठा हुआ हूँ.

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, January 6, 2010

कभी लगती हकीक़त सी

कभी तो ख्वाब सा लगता कभी लगती हकीक़त सी;
मिली है ज़िन्दगी इक क़र्ज़ में डूबी वसीयत सी.

उसूलों के लिए जो जान देते थे कभी अपनी,
वे खुद करने लगे हैं अब उसूलों की तिजारत सी.

कभी जिनके  इशारों पर हवा का रुख बदलता था ,
हवा करने लगी है अब स्वयं उनसे बगावत सी.

रखा जिसके लिए अपना हरिक सपना यहाँ गिरवी, 
दिखी उसकी निगाहों में झलकती अब हिकारत सी.

न उनको भूल ही पाते न चर्चाओं में ला पाते,
रखीं दिल में अभी तक कुछ मधुर यादें अमानत सी.

कभी रिश्तों की सोंधी सी महक उठती थी जिस घर में,
वहाँ फैली हुई है आजकल हर ओर नफ़रत सी.  

समझ पाते न 'भारद्वाज' हम उसके इशारों को,
हमारी आत्मा देती हमें हरदम नसीहत सी.

चंद्रभान भारद्वाज