Friday, November 28, 2014

रेत के ढेर को आधार समझ बैठे हैं 
स्वप्न के महलों को साकार समझ बैठे हैं 

एक पत्थर की तराशी हुई जो मूरत थी 
उसकी मुस्कान को हम प्यार समझ बैठे हैं

घर में मेहमान से बनकर जो कभी आए थे 
आज वो घर पे ही अधिकार समझ बैठे हैं 

ज़िंदगी जीना भी आसान कहाँ दुनिया में 
लोग ज़ज़्बात को व्यापार समझ बैठे हैं 

एक शैतान तो बैठा है मसीहा बनकर 
और मसीहा को खतावार समझ बैठे हैं 

जाल फैलाया हुआ जिसने महज धोखे का 
सब उसी शख्स को अवतार समझ बैठे हैं 

बंद हैं चारों तरफ काँच की दीवारों में 
हम इसे आज प्रगति द्वार समझ बैठे हैं 

मंच के आगे खरीदे हुए पुतले हैं सभी 
वो जिसे अपना जनाधार समझ बैठे हैं  

हम 'भरद्वाज' गुनाहों से उठाते परदा
पर सभी हमको गुनहगार समझ बैठे हैं 

चंद्रभान भारद्वाज 

Thursday, November 20, 2014

             लिये बैठे हैं 

आप किस दौर के हालात लिये बैठे हैं 
दिल में बस बीती हुई बात लिये बैठे हैं 

अब यहाँ कोख भी मिलती है किराया देकर 
लोग बाज़ार में ज़ज़्बात लिये बैठे हैं 

एक मिट्टी की ही गुल्लक में है पूँजी अपनी 
वे तो स्विस बैंक की औकात लिये बैठे हैं 

अब तो रिश्ते भी बदलते हैं यहाँ पल पल में 
आप बचपन की मुलाकात लिये बैठे हैं 

सभ्यता आज की मंगल की सतह तक पहुँची
हम हथेली पे कढ़ी भात लिये बैठे हैं 

आजकल प्यार शुरू होता है मोबाइल पर 
वे निगाहों से शुरूआत लिये बैठे हैं 

शब्द होठों पे लिये बैठे हैं मीठे मीठे 
मन में वे अपने मगर घात लिये बैठे हैं 

अब तो सावन में न भादों में बरसते बादल 
पर वे आषाढ़ की बरसात लिये बैठे हैं 

अपनी आदत न 'भरद्वाज' बदल पाये हम 
पहली यादों को ही दिन रात लिये बैठे हैं 

चंद्रभान भारद्वाज