डगर में रजकणों को मील का पत्थर समझ बैठे
टिके बैसाखियों पर जो उन्हें गिरवर समझ बैठे
खरीदे मंच के आगे खरीदीं तालियाँ सारी
खरीदी भीड़ को ही आमजन का स्वर समझ बैठे
नज़र के सामने फैला हुआ था दूर तक मरुथल
मगर हम प्यास के मारे उसे निर्झर समझ बैठे
न तो आकाश है उनका न धरती ही कहीं उनकी
खुले फुटपाथ को वे लोग अपना घर समझ बैठे
स्वयं ही मारकर पत्थर हरिक दर्पण को तोडा है
बिना दर्पण वो अपना चेहरा सुंदर समझ बैठे
किया है झिलमिलाती रोशनी ने इस कदर अंधा
चमकते काँच के टुकड़ों को हम गौहर समझ बैठे
हुई है दूर 'भारद्वाज' भूखे पेट से रोटी
बड़े बाजार को पर हम प्रगति की दर समझ बैठे
चंद्रभान भारद्वाज