Tuesday, February 28, 2012

समझ बैठे

डगर में रजकणों को मील का पत्थर समझ बैठे 
टिके बैसाखियों पर जो उन्हें गिरवर समझ बैठे 

खरीदे  मंच  के  आगे  खरीदीं  तालियाँ  सारी
खरीदी भीड़ को ही आमजन का स्वर समझ बैठे 

नज़र के सामने फैला हुआ था दूर तक मरुथल 
मगर हम प्यास के मारे उसे निर्झर समझ बैठे 

न तो आकाश है उनका न धरती ही कहीं उनकी 
खुले फुटपाथ को वे लोग अपना घर समझ बैठे 

स्वयं ही मारकर पत्थर हरिक दर्पण को तोडा है 
बिना दर्पण वो अपना चेहरा सुंदर समझ बैठे 

किया है झिलमिलाती रोशनी ने इस कदर अंधा
चमकते काँच के टुकड़ों को हम गौहर समझ बैठे 

हुई  है  दूर  'भारद्वाज'  भूखे  पेट  से  रोटी
बड़े बाजार को पर हम प्रगति की दर समझ बैठे 

चंद्रभान भारद्वाज  

Wednesday, February 22, 2012

कातिल नहीं पाया


इक खून का कोई कहीं हासिल नहीं पाया 
चाकू नहीं पाया कभी कातिल नहीं पाया 

जो जुर्म में शामिल थे वे छूटे हुए बाहर 
जो कैद है वह जुर्म में शामिल नहीं पाया 

इंसान  तो  मजबूर  है  क़ानून  है  अंधा
जो वाद को अंजाम दे वह दिल नहीं पाया 

आया  हुआ  है रास्ते  के बीच  जो पत्थर 
चाहा हटाना पर जरा भी हिल नहीं पाया 

डस करअचानक हो गया है आँख से ओझल 
जिसमें छिपा है साँप का वह बिल नहीं पाया 

काँटों में फँस कर फट गया है रेशमी आँचल 
उलझा हुआ हर तार ऐसा सिल नहीं पाया 

हालात कैसे कर गया है बाग़ का मौसम 
सूखा नहीं पर फूल कोई खिल नहीं पाया  

बैठे  हुए  हैं  लोग  ऐसे  मंच  के   ऊपर  
जिनको दरी के भी कभी काबिल नहीं पाया 

कश्ती उतारी तो है 'भारद्वाज' सागर में 
कोई अभी तक राह या साहिल नहीं पाया 

चंद्रभान भारद्वाज