Sunday, February 6, 2011

कोई नहीं दिखता

बबूलों के वनों में गुलमोहर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे ऐसा शजर कोई नहीं दिखता

भटकती ही रही है ज़िन्दगी इस दर से उस दर तक
जिसे चाहत रही अपनी वो दर कोई नहीं दिखता

चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
खड़े हैं बस अकेले हम बशर  कोई नहीं दिखता

रहा आवाज़ का धोखा कि धोखा है निगाहों का
जिधर आवाज़ आती है उधर कोई नहीं दिखता

दिया बनकर जली है उम्र सारी इक प्रतीक्षा में
चुकी बाती बुझा दीया मगर कोई नहीं दिखता

कहीं थे राह में रोड़े कहीं थी  पाँव में बेडी
मगर अपने इरादों पर असर कोई नहीं दिखता

यहाँ कुछ लोग 'भारद्वाज' लिखने में लगे गज़लें
गज़लगोई का पर उनमें हुनर कोई नहीं दिखता

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, February 1, 2011

कौन देखता है

टूटे हुए मचानों को कौन देखता है
उजड़े पड़े मकानों को कौन देखता है

भर तो दिए  समय ने पर दर्द है अभी तक
घावों के उन निशानों को कौन देखता है

बारात जा चुकी है और उठ चुकी है डोली
अब सूने शामियानों को कौन देखता है

महफ़िल में सब निगाहें बस मंच पर टिकी हैं
नीचे के पायदानों को कौन देखता है

आते रहें उजाले मिलती रहे हवा भी
ऐसे उजालदानों को कौन देखता है

बनने को खीर पहले जो आग पर चढ़े थे
उन चावलों मखानों को कौन देखता है

गा गा के जिनको झेलीं थीं लाठियाँ और गोली
अब उन अमर तरानों को कौन देखता है

सब देखते दरीचे दालान और गुम्बद
पर नीव की चटानों को कौन देखता है

बलिदान हो गए हैं जो सरहदों की खातिर
उन वीरों उन जवानों को कौन देखता है

कन्धों से दूसरों के बस साधते निशाना
अब तीर या कमानों को कौन देखता है

पानी रुका है ऊपर नीचे है रेत केवल
नदियों के उन मुहानों को कौन देखता है

तुमको दिखाना होगा खुद वर्तमान अपना
गुज़रे हुए ज़मानों को कौन देखता है

डाली हुई सियासत की 'भारद्वाज' दिल में
नफ़रत की अब गठानों को कौन देखता है

चंद्रभान भारद्वाज