Tuesday, July 5, 2016

                     बात करते हैं

लिए विष के मगर अमृत घड़ों की बात करते हैं 
भरे दुर्गंध से पर केवडों  की बात करते हैं 

बनाने के लिए बहुमंज़िला प्रासाद खुद अपने 
गिराने के लिए बस झोपड़ों की बात करते हैं 

विवश होकर गरीबी से हुईं हैं आत्महत्याएं 
वो पर थोथी प्रगति के आँकड़ों की बात करते हैं 

अचर्चित बैंक से गुपचुप करोड़ों लूटने वाले 
किसानों के मगर डूबे ऋणों की बात करतेहैं 

जिन्होंने उम्र भर बस खिड़कियों के काँच फोड़े हैं 
उन्हीं कुछ पत्थरों की कंकड़ों की बात करते हैं 

जो कल तक दो समय की रोटियाँ  गिनते रहे केवल 
अभी लाखों करोड़ों सैकड़ों की बात करते हैं 

जो आँधी  के तनिक से वेग से होते धराशायी 
वो धरती में जमीं अपनी जड़ों की बात करते हैं 

निकल कर माँद से बाहर कभी सागर नहीं देखा 
वो बस बरसात के उथले गडों की बात करते हैं 

उभरते डाकुओं के चित्र अक्सर आँख के आगे 
वो जब चम्बल के फैले बीहड़ों की बात करते हैं 

कोई भी हौसला पर्वत के आगे झुक नहीं सकता 
स्वयं जब हाथ गेंती फावड़ों की बात करते हैं 

नहीं मालूम 'भारद्वाज ' जिनको सभ्यता अपनी 
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की बात करते हैं 

चंद्रभान  भारद्वाज 
                   कहाँ मिलता है 

हर  शिखर छूने को सोपान कहाँ मिलता है 
हर समस्या का समाधान कहाँ मिलता है 

हर सफलता ही कठिन पथ से निकलती है सदा 
तप  बिना कोई भी वरदान कहाँ मिलता है 

ध्येय से ध्यान भटकता है  अगर साधक का 
तीर को लक्ष्य का संधान कहाँ मिलता है 

गुरु का हो नाम भले मूर्ति रहे मिटटी की 
गुरु की सद दृष्टि बिना ज्ञान  कहाँ मिलता है 

कैमरे रहते यहाँ अब तो छिपे कक्षों में 
चिपका  दीवार पे कोई  कान कहाँ मिलता  हैं 

जन्म से मृत्यु  तलक  ऋण  से दबा है जीवन 
उसको चिंताओं से परित्राण कहाँ मिलता है 

वह 'भरद्वाज' सदा आती है चुपके चुपके 
मृत्यु के आने  का कुछ भान कहाँ मिलता है 

चंद्रभान  भारद्वाज