Tuesday, January 20, 2009

देखे

कमजोर पत्थर के बने आधार भी देखे,
ढहते हुए पुख्ता दरो-दीवार भी देखे।

ढलता न था सूरज जहाँ होती न थीं रातें,
मिटते हुए वे राज वे दरबार भी देखे।

जकड़े हुए थे प्यार की जंजीर में युग से,
इस दौर में वे टूटते परिवार भी देखे।

बाजार सब को तौलता है अब तराजू में,
फन बेचते अपना यहाँ फनकार भी देखे।

सम्मान होना था शहीदों देश-भक्तों का,
पर मंच पर बैठे हुए गद्दार भी देखे।

जो एक मृग-तृष्णा लिये बस भागती फिरती,
इस ज़िन्दगी के टूटते एतबार भी देखे।

सूखी टहनियों पर बने थे दाग पत्थर के,
उजड़े चमन ने पेड़ वे फलदार भी देखे।

लौटा शहर से गाँव तो भीगी पलक देखीं,
यादें खड़ी थीं मौन वे घर-बार भी देखे।

यह प्यार 'भारद्वाज' सदियों की कहानी है,
छलते इसे इकरार भी इनकार भी देखे।

चंद॒भान भारद्वाज

Sunday, January 18, 2009

देखते हैं

तनिक सरहदें लाँघ कर देखते हैं;
उधर की हवा झाँक कर देखते हैं।

मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवेदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।

खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।

पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।

किनारे कहाँ तक सँभाले रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।

समय ने हमें सिर्फ रेवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।

'भरद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।

चंद॒भान भारद्वाज

Tuesday, January 13, 2009

आने लगीं

जब फसल में फूल फलियाँ बालियाँ आने लगीं;
खेत में चारों तरफ से टिड्डियाँ आने लगीं।

आम का इक पेड़ आंगन में लगाया था कभी,
पत्थरों से घर भरा जब आमियाँ आने लगीं।

जब कली से फूल बनने की क्रिया पूरी हुई,
डाल पर तब तितलियाँ मधुमक्खियाँ आने लगीं।

भागतीं फिरतीं रहीं कल तक उमर से बेखबर ,
उन लड़कियों के गले में चुन्नियाँ आने लगीं।

ज़िन्दगी को आ गया सजने संवरने का हुनर,
पायलें झुमके नथनियाँ चूड़ियां आने लगीं।

जिन घरों में शादियों की बात पक्की हो गई,
देख कर शुभ लग्न पीली पातियाँ आने लगीं।

हो रहे हालात बदतर डाकघर के दिन-ब-दिन,
आजकल ई-मेल से सब चिट्ठियाँ आने लगीं।

याद आई गाँव की परदेशियों को जिस घड़ी ,
दफ्तरों में छुट्टियों की अर्जियाँ आने लगीं।

पढ़ जिन्हें झुकतीं निगाहें आज 'भारद्वाज' खुद,
रोज अब अखबार में वे सुर्खियाँ आने लगीं।

चंद॒भान भारद्वाज

Thursday, January 8, 2009

देकर गया

मानता था मन सगा जिसको दगा देकर गया;
प्यार अक्सर ज़िन्दगी को इक सज़ा देकर गया।

दर्द जब कुछ कम हुआ जब दाग कुछ मिटने लगे,
घाव फ़िर कोई न कोई वह नया देकर गया।

जानता था खेलना अच्छा नहीं है आग से,
पर दबी चिनगारियों को वह हवा देकर गया।

याद आता है उमर भर प्यार का वह एक पल,
जो उमर को आंसुओं का सिलसिला देकर गया।

आंसुओं में डूब कर भी ढूंढ लेते हैं हँसी
प्रेमियों को वक्त यह कैसी कला देकर गया।

द्वार सारे बंद थे सब खिड़कियाँ भी बंद थीं,
पर समय कोई न कोई रास्ता देकर गया।

हम कभी बदले स्वयं वातावरण बदला कभी,
दर्द ऐसे में खुशी का सा मज़ा देकर गया।

चंद्रभान भारद्वाज