Thursday, April 19, 2012

कहाँ रही

वह दोस्ती का दौर वह मस्ती कहाँ रही 
गुलज़ार थी दिन-रात वह बस्ती कहाँ रही 

तूफ़ान की परवाह थी न आँधियों का डर
बारिश का पानी कागजी कश्ती कहाँ रही 

जिसके इशारे पर बदलती रुख सदा हवा 
दरबार का वह रौब वह हस्ती कहाँ रही  

कन्धों पे ज़िन्दगी की जिम्मेदारियाँ लदीं
बेफिक्र अल्हड़पन मटरगश्ती कहाँ रही 


फिरका परस्ती भी रही है बुत परस्ती भी 
लेकिन कभी इंसान परस्ती कहाँ रही 

छत की खबर कोई न कोई दाल-रोटी की 
इस ज़िंदगी को  साँस भी सस्ती कहाँ रही  

बस्तों ने छीना आज  'भारद्वाज' बालपन 
वह बालहट वह जोर-जबरदस्ती कहाँ रही

चंद्रभान भारद्वाज 

Sunday, April 8, 2012

वैश्वीकरण की मार ले डूबी

शहर को हर तरफ वैश्वीकरण की मार ले डूबी 
तरक्की गाँव का हल खेत घर परिवार ले डूबी 

पुरानी साइकिल से तो किया हर  रास्ता पूरा 
नई आसान किश्तों में ख़रीदी कार ले डूबी 

सुरक्षित आ गए कच्ची सड़क से खाते हिचकोले 
मगर पक्की सड़क की भागती रफ़्तार ले डूबी 

हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन 
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी 

किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर 
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डूबी 

न तो जड़ से रहा नाता  न रिश्ता कोई मिट्टी से 
प्रथाओं संस्कारों को समय की धार ले डूबी 

दिया संतोष 'भारद्वाज' घर की दाल रोटी ने 
मगर पीजा की बर्गर की हमें दरकार ले डूबी 

चंद्रभान भारद्वाज