वह दोस्ती का दौर वह मस्ती कहाँ रही
गुलज़ार थी दिन-रात वह बस्ती कहाँ रही
तूफ़ान की परवाह थी न आँधियों का डर
बारिश का पानी कागजी कश्ती कहाँ रही
जिसके इशारे पर बदलती रुख सदा हवा
दरबार का वह रौब वह हस्ती कहाँ रही
कन्धों पे ज़िन्दगी की जिम्मेदारियाँ लदीं
बेफिक्र अल्हड़पन मटरगश्ती कहाँ रही
फिरका परस्ती भी रही है बुत परस्ती भी
लेकिन कभी इंसान परस्ती कहाँ रही
छत की खबर कोई न कोई दाल-रोटी की
इस ज़िंदगी को साँस भी सस्ती कहाँ रही
बस्तों ने छीना आज 'भारद्वाज' बालपन
वह बालहट वह जोर-जबरदस्ती कहाँ रही
चंद्रभान भारद्वाज