Thursday, October 9, 2014

                      संभाले हुए हैं    

घर की गिरती हुई दीवार संभाले हुए हैं 
एक बिखरा हुआ परिवार संभाले हुए हैं 

सुबह रोजी का न शामों को पता रोटी का 
ऐसे हालात में घरवार संभाले हुए हैं 

फैसले की है न उम्मीद हमारे हक़ में 
कुर्सियाँ सारी गुनहगार संभाले हुए हैं 

बोझ जंजीर का पाँवों पे सँभाला हमने 
आप जंजीर की झंकार संभाले हुए हैं 

उसकी नीदों  में कहीं बिघ्न न आए कोई 
हम बुरे  वक़्त का हर वार संभाले हुए हैं 

जो कभी जंग के मैदान में उतरे ही नहीं 
आज बिन मूठ की तलवार संभाले हुए हैं 

जिनसे खुद तो न सँभल  पाया कभी घर अपना 
अब वही देश की सरकार संभाले हुए हैं 

अब सजा से भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता है 
जेल में रह के भी दरबार संभाले हुए हैं 

जिसकी कथनी में असर है न असर करनी में 
लोग उस नाम को बेकार संभाले हुए हैं 

गाड़ियाँ उनकी चलाते  तो हैं रोबोट यहाँ 
वो रमोटों से ही रफ़्तार संभाले हुए हैं 

उनको मैदान में आने की जरूरत ही नहीं 
मोर्चा उनके तरफदार संभाले हुए हैं 

उगते सूरज को छिपाया है जिन्होंने अबतक 
खुद उजालों का वो बाज़ार संभाले हुए हैं 

ज़िन्दगी अपनी 'भरद्वाज' न सँभली हमसे 
उसकी यादों के वरक़ यार संभाले हुए हैं 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, October 7, 2014

                     जिंदगी प्यासी रही 

देह भी प्यासी रही है रूह भी प्यासी रही 
प्यार की दो बूँद बिन यह ज़िन्दगी प्यासी रही 

माँग में सिंदूर है पर आँख में काजल नहीं 
गोद खुशियों से भरी पर हर ख़ुशी प्यासी रही 

प्यास लेकर जी रहा था प्यास लेकर मर गया 
आदमी का दिन भी प्यासा रात भी प्यासी रही 

तन का वैभव धन से है पर मन का वैभव प्रेम है 
तन का सागर है भरा मन गागरी प्यासी रही 

हर तरफ छाई बहारों का बताओ क्या करें 
कामना के बाग की जब हर कली प्यासी रही 

प्यास दुनिया की बुझाती  आ रही युग से मगर 
गंदगी  ढोती हुई अब खुद  नदी प्यासी रही 

आज बस्ती में निगम का टेंकर आया नहीं 
हर घड़ा प्यासा रहा हर बालटी प्यासी रही 

त्रासदी ही त्रासदी थी बाढ़ की चारों तरफ 
शहर पानी से भरा पर हर गली प्यासी रही 

भाव के पीछे कभी शब्दों के पीछे भागती 
व्यग्र 'भारद्वाज' की यह लेखनी प्यासी रही 

चन्द्रभान भारद्वाज