समय के गुजरते प्रहर जानते हैं
कि हम ज़िन्दगी का हुनर जानते हैं
जरूरत नहीं मील के पत्थरों की
हमारे कदम हर डगर जानते हैं
दिशा जानते हैं दशा जानते हैं
हवा बह रही है किधर जानते हैं
खड़ी बीच में एक दीवार ऊँची
उधर की मगर हर खबर जानते हैं
सदा फूस के ढेर को ढूँढती हैं
कुटिल चिनगियों की नज़र जानते हैं
बढ़ी है उमर और हर घूँट पीकर
दिया है समय ने ज़हर जानते हैं
पड़े हैं कदम जिस जगह पर हमारे
मने नित्य उत्सव उधर जानते हैं
कथा सिलवटों की व्यथा करवटों की
कहाँ क्या हुआ रात भर जानते हैं
निभाया बहुत ज़िन्दगी की ग़ज़ल को
रही कुछ न कुछ पर कसर जानते हैं
चंद्रभान भारद्वाज
Wednesday, July 21, 2010
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5 comments:
जरूरत नहीं मील के पत्थरों की
हमारे कदम हर डगर जानते हैं
...vaah bahut hi khubsurat rachna.
समय के गुजरते प्रहर जानते हैं
कि हम ज़िन्दगी का हुनर जानते हैं
निभाया बहुत ज़िन्दगी की ग़ज़ल को
रही कुछ न कुछ पर कसर जानते हैं
आदरणीय भारद्वाज जी,
ज़िंदगी के उतार चढ़ाव की बहुत सुंदर व्याख्या की है
आप ने ,वैसे तो पूरी ग़ज़ल बहुत अच्छी है लेकिन ये दो अश’आर ख़ास तौर पर अच्छे लगे
आभार
वाह्……………बेहद सुन्दर ।
परम आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी
प्रणाम !
आशा है , सपरिवार स्वस्थ - सानन्द होंगे ।
कमाल का कलाम है आपका !
जरूरत नहीं मील के पत्थरों की
हमारे कदम हर डगर जानते हैं
क्या बात है !
निभाया बहुत ज़िन्दगी की ग़ज़ल को
रही कुछ न कुछ पर कसर जानते हैं
वाह ! वाह ! वाह !
आशीर्वाद देने आते रहें शस्वरं पर ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
दिशा जानते हैं दशा जानते हैं
हवा बह रही है किधर जानते हैं
वाह....वाह
खड़ी बीच में एक दीवार ऊँची
उधर की मगर हर खबर जानते हैं
कितना खूबसूरत शेर है.
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