Tuesday, October 12, 2010

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक

वक़्त  अमृत की नदी को कर रहा  विषमय  
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक

घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर  सिर्फ एक चिराग है मालिक

हर नज़र ठहरी हुई है  बाज सी उस पर  
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक

थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक

रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता  बाग़ है मालिक

बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग  है मालिक

पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक

क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो  पाग है मालिक

चंद्रभान भारद्वाज

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बेहतरीन ! एक एक शेर दिल को छुं गई !
घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर सिर्फ एक चिराग है मालिक
लाजवाब!

vandana gupta said...

पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक

आपकी गज़ले हमेशा सोचने को मजबूर कर देती हैं……………बेहद उम्दा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक

रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता बाग़ है मालिक

बहुत खूबसूरत गज़ल ..समाज की विसंगतियों को बताती हुई

'साहिल' said...

बहुत उम्दा ग़ज़लें हैं आपकी........पढ़ के बहुत आनंद आया.....दाद कबूल करें