Sunday, October 31, 2010

खड़े रहकर क़तारों में भी अब बारी नहीं आती

खड़े रहकर क़तारों में भी अब बारी नहीं आती
हमें क्रम तोड़ बढ़ने की कलाकारी नहीं आती

गँवा कर उम्र सारी हम लुटा बैठे हैं तन मन धन
वो कहते हैं हमें रस्मे वफादारी नहीं आती

उतरती आत्मा पहले किसी किरदार के अंदर
अदा संवाद करने से अदाकारी नहीं आती 

कलम को डूबना पड़ता लहू में और आँसू में 
फ़क़त कुछ शब्द रचने से गज़लकारी नहीं आती

नहीं रखता है जो इंसान अपने पाँव धरती पर  
उसे  खाए बिना  ठोकर समझदारी नहीं आती 

पिरोते हैं सुई में प्रेम के भी रेशमी धागे 
न हों वे रेशमी धागे तो गुलकारी नहीं आती 

स्वयं बनता है मिट्टी एक माली मिलके मिट्टी में 
महज बीजों से 'भारद्वाज' फुलवारी नहीं आती 

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, October 22, 2010

अकेलापन न देना

चाहे अवलंबन न देना
पर अकेलापन न देना

आग सा जलता रहेगा    
प्रिय बिना यौवन न देना

भीख माँगे मृत्यु से जो
वह विवश जीवन न देना

एक पत्थर के ह्रदय में
प्यार की धड़कन न देना

रूप को अपरूप कर दे
धुंध में दर्पण न देना

माँग में सिन्दूर के बिन
चूड़ियाँ कंगन न देना

नित्य 'भारद्वाज' बिलखे
माँ बिना बचपन न देना

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, October 12, 2010

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक

हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक

वक़्त  अमृत की नदी को कर रहा  विषमय  
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक

घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर  सिर्फ एक चिराग है मालिक

हर नज़र ठहरी हुई है  बाज सी उस पर  
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक

थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक

रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता  बाग़ है मालिक

बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग  है मालिक

पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक

क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो  पाग है मालिक

चंद्रभान भारद्वाज