Sunday, July 17, 2011

मान बैठे हैं


खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं

चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं

उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं

किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं

धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं

किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं 
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं

लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में 
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं

चंद्रभान भारद्वाज