Tuesday, December 29, 2009

क्या पता वह प्यार था

ज़िन्दगी मचली उमंगों का उठा इक ज्वार था;
क्या पता वह वासना थी क्या पता वह प्यार था।

याद बस दिन का निकलना और ढलना रात का,
कल्पनाओं के महल थे स्वप्न का संसार था।

होंठ पर मुस्कान सी थी आँख में पिघली नमी,
प्यार की प्रस्तावना थी या कि उपसंहार था।

स्वप्न में चारों तरफ थे चाँद तारे चाँदनी,
आँख खोली तो महज उजड़ा हुआ घर द्वार था।

धार में दोनों बहे थे संग सँग इक वक्त पर,
रह गये इस पार पर हम वह खड़ा उस पार था।

आज कुछ संदर्भ भी आता नही अपना वहाँ,
जिस कहानी में कभी अपना अहम किरदार था।

रह गया है बिन पढ़ा ही डायरी का पृष्ट वह,
बद्ध 'भारद्वाज' जिसमें ज़िन्दगी का सार था।

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, December 23, 2009

खुद भ्रम में है आईना यहाँ

है ज़हर पर मानकर अमृत उसे पीना यहाँ;
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की ही तरह जीना यहाँ।

उन हवाओं को वसीयत सौंप दी है वक्त ने,
जिनने खुलकर साँस लेने का भी हक छीना यहाँ।

आँख में रखना नमी कुछ और होठों पर हँसी,
क्या पता पत्थर बने कब फूल सा सीना यहाँ।

हो गया बेहद कठिन पहचानना सच झूठ को,
बीच दोनों के रहा परदा बहुत झीना यहाँ।

पाँव ने कुचला उसे खुद और घायल कर दिया,
राह के कांटों को जिस उँगली ने कल बीना यहाँ।

इस तरफ तो हादसे हैं उस तरफ वीरानियाँ,
कर दिया मुश्किल बहुत इंसान का जीना यहाँ।

एक चेहरे पर लगे हैं अब हज़ारों चेहरे,
देख 'भारद्वाज' खुद भ्रम में है आईना यहाँ।

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, December 18, 2009

कोई सपना पलक पर बसा ही नहीं

जाने क्या हो गया है पता ही नहीं;
कोई सपना पलक पर बसा ही नहीं।

नापते हैं वो रिश्तों की गहराइयाँ,
जिनकी आंखों में पानी बचा ही नहीं।

उनको मालूम क्या दर्द क्या चीज है,
जिनके पाँवों में काँटा गड़ा ही नहीं।

टूट जाने का अहसास होता कहाँ,
प्यार की डोर में जब बँधा ही नहीं।

गहरी खाई में जाकर गिरेगा कहीं,
राह में मोड़ पर जो मुड़ा ही नहीं।

लोग मीरा कि सुकरात बनने चले ,
स्वाद विष का कभी पर चखा ही नहीं।

बोझ कैसे उठाये भला आदमी,
उसके धड़ पर तो कंधा रहा ही नहीं।

जो पहाड़ों की चोटी चला लाँघने,
खुद की छत पर अभी तक चढ़ा ही नही।

प्यार का अर्थ समझे 'भरद्वाज' क्या,
कृष्ण राधा का दर्शन पढ़ा ही नहीं।

चंद्रभान भारद्वाज

Thursday, December 10, 2009

नया कुछ नहीं

प्यार से और बढ़कर नशा कुछ नहीं;
रोग ऐसा कि जिसकी दवा कुछ नहीं।

जिस दिये को जलाकर रखा प्यार ने,
उसको तूफान आँधी हवा कुछ नहीं।

जान तक अपनी देता खुशी से सदा,
प्यार बदले में खुद माँगता कुछ नहीं।

जिसने तन मन समर्पण किया प्यार को
उसको दुनिया से है वास्ता कुछ नहीं।

आग की इक नदी पार करनी पड़े,
प्यार का दूसरा रास्ता कुछ नहीं।

रेत बनकर बिखरती रहे ज़िन्दगी,
शेष मुट्ठी में रहता बचा कुछ नहीं।

हाल सब आँसुओं से लिखा पत्र में,
पर लिफाफे के ऊपर पता कुछ नही।

देह तो जल गई आत्मा उड़ गई,
राख है और बाकी रहा कुछ नहीं।

प्यार का फल मिला जो 'भरद्वाज' को,
दर्द की पोटली है नया कुछ नहीं।

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, November 28, 2009

उजाले और धुँधलाए

किसी वीरान में भटका हुआ राही किधर जाए;
न कोई रास्ता सूझे न मंज़िल ही नज़र आए।

बदन की चोट तो इंसान सह लेता सहजता से,
लगे मन पर तो शीशे सा चटक कर वह बिखर जाए।

घुमड़ते ही रहे दिल में किसी की याद के बादल,
उसाँसॉं से न उड़ पाए न आँसू बन बरस पाए।

अगर रेखागणित का प्रश्न हो तो सूत्र से सुलझे,
त्रिभुज हो प्यार का तो सूत्र कोई भी न काम आए।

समय की धार से लड़ती रही है अब तलक कश्ती,
भँवर में डूब भी पाए न लहरों से उबर पाए।

इनायत की नज़र कोई मिले मेरी गज़ल को भी,
इधर मतला सुधर जाए उधर मकता सँवर जाए।

करें कब तक भरोसा और 'भारद्वाज' सूरज पर,
उजाले और धुँधलाए अँधेरे और गहराए।

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, November 18, 2009

ऊँगली उठाता है

बता कर कुछ न कुछ कमियाँ निगाहों से गिराता है;
ज़माना नेक नीयत पर भी अब ऊँगली उठाता है।

समझता ख़ुद के काले कारनामों को बहुत उजला,
हमारे साफ दामन को मगर दागी बताता है ।

किसी को पक्ष रखने का कोई मौका नहीं देता,
सबूतों के बिना हर फैसला अपना सुनाता हैं।

रही है पीठ पीछे बात करने की उसे आदत,
नज़र के सामने आते ही नज़रों को चुराता है।

कभी जब होश खोता है तनिक भी जोश में आकर,
ज़रा सी भूल का वह क़र्ज़ जीवन भर चुकाता है।

महज़ बोते रहे हम भावना के बीज ऊसर में,
न उनमे फूल ही आते न कोई फल ही आता है।

बदी तो याद रखता है यहाँ इंसान बरसों तक,
मगर नेकी को 'भारद्वाज' पल भर में भुलाता है।

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, November 7, 2009

अपनापन नहीं मिलता

न जिसके बीच हो दीवार वह आँगन नहीं मिलता;
कहीं अब ज़िन्दगी नज़रों में अपनापन नहीं मिलता।

जिसे हम ओढ़ कर कुछ देर अपने दुःख भुला देते,
बुना हो प्यार के धागों से वह दामन नहीं मिलता।

जहाँ जज्बात की इक आग हरदम जलती रहती थी,
दिलों में अब वो जज्बा वह दिवानापन नहीं मिलता।

खड़े हैं भीड़ में महसूस करते पर अकेलापन,
किसी से तन नहीं मिलता किसी से मन नहीं मिलता।

खरा उतरे सदा जो ज़िन्दगी की हर कसौटी पर,
तपा हो आग में वह प्यार का कुंदन  नहीं मिलता।

बिता दी ज़िन्दगी सजने सँवरने की प्रतीक्षा में,
उमर को पर कभी पायल कभी कंगन नहीं मिलता।

स्वयं ही सीढियाँ पड़ती हैं चढ़नी नंगे पाओं से,
शिखर छूने को भाड़े का कोई वाहन नहीं मिलता।

किया है उम्र भर जिसने तिलक हर एक माथे का,
उसे अपने ही माथे के लिए चंदन नहीं मिलता।

कि जिसमें भीग 'भारद्वाज' तन अंगार बन जाता,
भरी बरसात में वह झूमता सावन नहीं मिलता।

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, October 12, 2009

प्रणय - शतक (प्रेमानुभूति का काव्य) - चंद्रभान भारद्वाज

(१)
मेरे दिल को धडकना सिखाती रही ,
मेरे सपनों को उड़ना सिखाती रही ;
मैं तो अनजान था प्यार से वो मगर ,
प्यार का पाठ पढ़ना सिखाती रही।

(२)
आज वह मेरे मन का विषय बन गई,
मेरे चिंतन मनन का विषय बन गई;
प्यार की एक पुस्तक सी मन में लिखी,
वह गहन अध्ययन का विषय बन गई।

(३)
एक मूरत बनाकर सजाया उसे ,
मन के मन्दिर में लाकर बिठाया उसे ;
आरती प्यार की रोज करता हूँ अब,
आँख देखें जिधर सिर्फ़ पाया उसे।

(४)
प्यार हर एक चाहत को मिलता नहीं,
प्यार हर एक हसरत को मिलता नहीं;
प्यार को उसने मुझ पर लुटाया सदा ,
प्यार हर एक किस्मत को मिलता नहीं।

(५)
मैं अकेला खड़ा था कहीं राह में,
बन के पत्थर पड़ा था कहीं राह में;
उसने आकर समेटी मेरी ज़िन्दगी,
मैं तो बिखरा पड़ा था कहीं राह में।

(६)
उसकी यादों को मोती बनाता रहा ,
अपने दिल में उन्हें फ़िर सजाता रहूँ;
तेरी आंखों से आंसू जहाँ भी गिरें,
अपनी पलकों से उनको उठाता रहा ।

(७)
उसकी आवाज़ थी ज़िन्दगी कल मेरी,
बाँका अंदाज़ थी ज़िन्दगी कल मेरी;
गर्व उस पर बहुत यार करता हूँ मैं ,
उससे सरताज थी ज़िन्दगी कल मेरी।

(८)
गम की दुनिया में वह इक खुशी बन गई,
एक पल में मेरी ज़िन्दगी बन गई;
झाँकती मेरी आंखों में उसकी ही छवि ,
मेरे जीवन की वह रोशनी बन गई।

(9)
फूल बन कर सुबह गुदगुदाती थी वह ,
ओस बनकर सुबह नित भिगाती थी वह ;
खुद हवाओं से खुशबू चुराकर सुबह,
गंध बन कर मुझी में समाती थी वह ।

(१०)
दर्द सीने में अपने छिपाता रहा,
रात दिन स्वप्न उसके सजाता रहा;
कोई काँटा न पावों में उसके चुभे ,
उसकी राहों में दिल को बिछाता रहा।

(११)
रात दिन वह ख़यालों में आती रही ,
मेरी साँसों में प्राणों में छाती रही ;
मेरे अरमान सोये पड़े थे कहीं,
बन के सपने उन्हें फ़िर जगाती रही ।

(१२)
जिदगी जबसे मेरी अकेली हुई,
पीर ही सिर्फ़ उसकी सहेली हुई;
उसके जाने से दुनिया ही उजड़ी मेरी ,
ज़िन्दगी फ़िर न दुल्हन नवेली हुई।

(१३)
चाँदनी रात भी अब अँधेरी लगे ,
ज़िंदगी राख की एक ढेरी लगे ;
राह में साथ छोड़ा था उसने जहाँ ,
बस वहाँ से ही दुनिया लुटेरी लगे ।

(१४)
पीर से मेरे प्राणों की शादी हुई,
ज़िन्दगी बस अंधेरों की आदी हुई,
उसकी नज़रों से जब से हुआ दूर हूँ ,
ज़िन्दगी मेरी काँटों की वादी हुई।

(१५)
उसको शायद नहीं कोई अंदाज़ था ,
वह मेरा प्यार जिस पर मुझे नाज़ था ;
नाम से उसके जब नाम मेरा जुडा,
मेरी तकदीर का सर का वह ताज था ।

(१६ )
रिश्ते यादों के सब तोड़ आया हूँ अब ,
हर घरोंदा स्वयं फोड़ आया हूँ अब ;
ज़िंदगी में जहाँ भेंट उससे हुई ,
वह गली और घर छोड़ आया हूँ अब।

(१७)
मन के उपवन में थी वह महकती कली,
मन के आँगन में थी वह चहकती कली;
मेरे जीवन में वह प्राण की डाल पर,
थी महकती चहकती लचकती कली।

(१८)
मेरी बाँहों में वह मेरी चाहों में चाहों वह ,
मेरी मंजिल में वह मेरी राहों में वह ;
मेरे तन मन में वह मेरी नस नस में वह ,
मेरे प्राणों में वह मेरी आहों में वह ।

(१९)
राह मेरी न जाने कहाँ मुड गई,
दिन का सुख रात की नीद भी उड़ गई;
वक्त लाकर खड़ा कर गया है कहाँ,
पीर से सहसा अब ज़िन्दगी जुड़ गई।

(२०)
मेरी धड़कन मेरी जिंदगानी थी वह ,
मेरे दिल पर लिखी इक कहानी थी वह ;
मेरी हर साँस पर राज करती थी वह ,
मेरे सपनों की इक राजधानी थी वह ।

(२१)
मेरी सब प्रार्थनाएं थीं उसके लिए ,
मेरी सब भावनाएं थीं उसके लिए;
मैंने जीवन समर्पित उसे कर दिया,
मेरी सब कामनाएं थीं उसके लिए।

(२२)
मेरा घर द्वार थी मेरा संसार थी ,
मेरे हर एक सपने की हक़दार थी ;
मन के मन्दिर में हर मूर्ति उसकी बनी ,
मेरी पूजा थी वह, वह मेरा प्यार थी ।

(२३)
मेरे भीगे हुए नैन पहले न थे,
मेरे सिसके हुए बैन पहले न थे;
हर तरफ आज बेचैनियों से घिरा ,
प्राण सच ऐसे बेचैन पहले न थे।

(२४)
मेरे हालात उससे छिपे तो न थे ,
मेरे जजबात उससे छिपे तो न थे ;
कैसे तन मन सँभालूँगा उसके बिना ,
यह सवालात उससे छिपे तो न थे ।

(२५)
तेरे हाथों में मेंहदी लगाता रहूँ ,
तेरे कदमों में कलियाँ बिछाता रहूँ;
बन के खुशबू हवाओं में घुलती रहो,
तेरी साँसों को चंदन बनाता रहूँ।

(२६)
मेरी नज़रों में परियों की रानी है तू,
प्यार की एक सुंदर कहानी है तू;
अपनी लहरों में मुझको बहा ले गई,
चढ़ती नदिया की चंचल रवानी है तू।

(२७)
मुझ को अच्छी तरह से यह अहसास है,
मेरा नादान दिल अब तेरे पास है;
इस ज़माने से मुझ को न लेना है कुछ,
मेरे जीवन में अब सिर्फ़ तू खास है।

(२८)
मेरे हाथों की अनमिट लकीरों में तू,
मेरे प्राणों के अनमोल हीरों में तू;
बाँध कर जिनमें रक्खा हुआ है मुझे,
प्यार की अनदिखी उन जंजीरों में तू।

(२९)

जन्म जन्मों का कोई भी रिश्ता है तू,
मेरी नज़रों में कोई फ़रिश्ता है तू;
कच्चे धागे में बांधा हुआ है जिसे,
प्यार का एक बेनाम रिश्ता है तू।

(३०)
राह मेरी अभी तक थी बहकी हुई,
तुम मिले तो लगी राह महकी हुई;
तेरी नज़रों ने जब से छुआ है मुझे,
ज़िन्दगी फ़िर से लगती है चहकी हुई।

(३१)
जब से बाँहों में चाहत सिमटने लगी,
बीच दोनों की दूरी भी घटने लगी;
पाठ कैसा पढ़ा कर गई तू इसे,
ज़िन्दगी नाम तेरा ही रटने लगी।

(३२)
मैं अंधेरे में तुझ को उजारा बनूँ,
जब थको राह में तो सहारा बनूँ,
तेरे आकाश में जितने भी तारे हैं,
उनमें सबसे चमकता सितारा बनूँ।

(३३)
दर्द में जैसे कोई खुशी मिल गई,
घुप अंधेरे में इक रोशनी मिल गई;
द्वार पर मौत आकर खड़ी थी मेरे,
तू मिली तो नई ज़िन्दगी मिल गई।

(३४)
तेरी यादों का इक सिलसिला मिल गया,
मेरे सपनों को इक घोंसला मिल गया;
बंद धड़कन जगा दी है तूने मेरी,
मैं अकेला था अब काफिला मिल गया।

(३५)
मेरे एकाकी जीवन की है मीत तू,
मेरी सुनसान राहों का संगीत तू;
मैं तो बैठा हुआ हार कर ज़िन्दगी,
मेरे हारे हुए मन की है जीत तू।

(३६)
पहले आना न था पहले जाना न था,
अपना रिश्ता भी कोई पुराना न था;
जब से तू मिल गई तब से लगने लगा,
ज़िन्दगी में तेरे बिन ठिकाना न था।

(३७)
मेरा मकसद है तू मेरी मंजिल है तू,
मेरे जीवन के कण कण में शामिल है तू;
मेरे सीने में हर दम धड़कता है जो,
मेरा नाज़ुक सा मासूम सा दिल है तू।

(३८)
मेरी साँसों में खुशबू महकती तेरी,
मेरे कानों में आहट खनकती तेरी;
मैं रखूँ खोल कर या रखूँ बंद मै,
मेरी आंखों में सूरत चमकती तेरी।

(३९)
मेरे सपनों में छाई है तेरी हँसी,
मेरे दिल में समाई है तेरी हँसी;
मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे,
याद जब जब भी आई है तेरी हँसी।

(४०)
पहले मेरा कहीं भी ठिकाना न था,
कोई बैठक कोई आशियाना न था;
जब से तू मिल गई ज़िन्दगी मिल गई,
वरना जीने का कोई बहाना न था।

(४१)
मेरे सपनों का संसार तेरे लिए,
मेरी यादों का भण्डार तेरे लिए;
मेरे मन की तहों में सहेजा हुआ,
ज़िन्दगी भर का सब प्यार तेरे लिए।

(४२)
मुझ को दुनिया के आचार जमते नहीं,
भाव मन के कहीं और रमते नहीं;
तेरी यादों में जब भी विचरता है मन,
मेरे आँसू भी आंखों में थमते नहीं।

(४३)
जागता मैं रहा या कि सोता रहा,
तेरी यादों में हर वक्त खोता रहा;
एक हलचल सदा मन को मथती रही,
तब अकेले में अक्सर मैं रोता रहा।

(४४)
जब भी लिखता हूँ मैं जब भी पढ़ता हूँ मैं,
सिर्फ़ मूरत सदा तेरी गढ़ता हूँ मैं;
तेरी तस्वीर मन में सुरक्षित रहे,
भावनाओं के शीशे में मढ़ता हूं मैं।

(४५)
तेरा चेहरा नज़र से निकलता नहीं,
लाख समझाया दिल पर बहलता नहीं;
हार कर दिल से बैठा दुआ आज मैं,
मेरा दिल मुझ से बिल्कुल संभलता नहीं।

(४६)
अपनी बेचैनियों को बताऊँ किसे,
दिल में तूफ़ान उठता दिखाऊँ किसे;
छोड़ कर मुझ को अधबीच में तू गई,
यह अधूरी कहानी सुनाऊँ किसे।

(४७)
छोड़ आया था संसार का रास्ता,
भूल बैठा था मैं प्यार का रास्ता;
तू बता कर गई मुझ को अपना पता,
ढूँढता अब मैं उस द्वार का रास्ता।

(४८)
तेरी खुशबू अभी मेरी साँसों में है,
तेरा सपना अभी मेरी आँखों में है;
अब तो तू बन गई है मेरी ज़िन्दगी,
तेरी सूरत अभी मेरे प्राणों में है।

(४९)
तेरी छवि के सिवा कुछ दिखाई न दे,
तेरे स्वर के सिवा कुछ सुनाई न दे;
तेरे दामन को खुशियों से भरता रहूँ ,
मुझ को इस के सिवा कुछ सुझाई न दे।

(५०)
हर सुबह याद तेरी जगाती मुझे,
रात को याद तेरी सुलाती मुझे;
मुझको बेचैनियों ने रखा घेर कर,
हर समय याद तेरी सताती मुझे।

(५१)
मेरी साँसों की तू अब हवा बन गई,
थी इकाई मगर अब सवा बन गई;
सालते जो रहे ज़िन्दगी भर मुझे,
रिसते घावों की तू अब दवा बन गई।

(५२)
तेरा चेहरा नज़र में समाया हुआ,
मेरा मन तेरे रँग में नहाया हुआ;
भूल पाता नहीं एक पल भी तुझे,
तेरा ऐसा नशा मुझ पे छाया हुआ।

(५३)
देखता है सुबह को न अब शाम को,
रटता रहता है मन बस तेरे नाम को;
हद से बढ़ने लगी इसकी दीवानगी,
झेलूँ कब तक बता इसके परिणाम को।

(५४)
बहके कदमों को अब इक सहारा मिला,
डूबती नाव को इक किनारा मिला;
मेरे जीवन को तू इक दिशा दे गई,
मन के मरुथल में इक जल की धारा है तू।

(५५)
मेरे मन में बसीं तेरी परछाइयाँ ,
मेरी साँसों में हैं तेरी शहनाइयाँ;
मेरी सूनी निगाहों में फैली हुईं,
बिन तेरे हर तरफ़ सिर्फ़ तन्हाइयां।

(५६)
तेरी यादों से दिन की शुरूआत अब,
तेरे सपनों में गुज़रे हरिक रात अब;
मेरा तन मन रमा है तेरे ध्यान में,
मेरे प्राणों को तू एक सौगात अब।

(५७)
घूमता तेरे बिन पागलों की तरह,
बे सहारा हुआ बादलों की तरह;
तेरी यादों ने बेचैन इतना किया,
आह भरता हूँ मैं घायलों की तरह।

(५८)
मेरे मन को सदा गुदगुदाती है तू,
मेरे मन पर लिखी प्रेम पाती है तू;
तूने जीवन मेरा रोशनी से भरा,
प्रेम दीपक की इक जलती बाती है तू।

(५९)
एक मूरत गढ़ी है तेरी नेह की,
उसमें खुशबू भरी है तेरी देह की;
याद तेरी भिगोती रही इस तरह,
जैसे बूँदें भिगोतीं रहीं मेह की।

(६०)
मेरा सपना है तू मेरी चाहत है तू,
मेरी कमजोरी तू मेरी ताकत है तू;
तुझ को पाकर बहुत गर्व करता हूँ मैं,
मेरा इमान तू मेरी इज्जत है तू।

(६१)
मेरी नज़रों में तू एक कोमल कली,
धूप में ही खिली धूप में ही पली;
छाँह बन कर तेरे मैं रहूँ साथ में,
बस महकती रहे मेरे मन की गली।

(६२)
तेरी तसवीर में रंग भरता रहा,
तेरी आँखों में गहरे उतरता रहा;
तुझ को मालूम था या नहीं क्या पता,
चुपके चुपके तुझे प्यार करता रहा।

(६३)
खुशबू बन तेरे तन पर बिखर जाऊँ मैं,
बन के सपना पलक पर उतर जाऊँ मैं;
रात दिन एक चाहत रही है मेरी,
तेरे आँचल को खुशियों से भर जाऊँ मैं।

(६४)
तेरी खशबू यहाँ तेरी खुशबू वहाँ,
पर दिखाई न दे तुझ को देखूं कहाँ;
इतना अपना पता तो बता दे मुझे,
तुझ को आँखों से अपनी निहारूं कहाँ।

(६५)
सूर्य की हर किरण रोशनी दे तुझे,
हर सुबह इक नई ज़िन्दगी दे तुझे;
तेरे दामन में खुशियाँ समांयें नहीं,
मेरा सतसांई इतनी खुशी दे तुझे।

(६६)
मैं न समझा कि संसार क्या चीज है,
इसके इस पार उस पर क्या चीज है;
तू मिली तो समझने लगा आज मैं,
ज़िन्दगी के लिए प्यार क्या चीज है।

(६७)
दर्द रह रह के उठता है दिल में मेरे,
इक धुंआ सा घुमड़ता है दिल में मेरे;
साँस रूकती मेरी दम निकलता मेरा,
ख्याल तेरा उमड़ता है दिल में मेरे।

(६८)
मेरी हर आस तू मेरा उल्लास तू,
तू मेरी आस्था मेरा विश्वास तू;
मेरे डूबे सितारे चमकने लगे,
मेरे जीवन में जब आ गई पास तू।

(६९)
तेरी यादों में गहरे उतरता हूँ मैं,
तेरी तसवीर में रंग भरता हूँ मैं;
तुझ को मालूम इतना नहीं अब तलक,
हद से ज्यादा तुझे प्यार करता हूँ मैं।

(७०)
मेरे मन में तेरी जब से चाहत जगी,
हद से बढ़ने लगी मेरी दीवानगी;
मुझ को तेरे सिवा कुछ दिखाई न दे,
तेरी यादें बनीं अब मेरी जिंदगी।

(७१)
मेरे मन के उजालों में रहती है तू,
मेरे उलझे सवालों में रहती है तू;
हाल कैसे बताऊँ मैं दिल का तुझे,
मेरे हरदम खयालों में रहती है तू।

(७२)
डाल से टूटे पत्ते सा उड़ना पडा,
मुझ को मिलने से पहले बिछुड़ना पड़ा;
प्यार में वह सजा दी गई है मुझे,
मुझ को हर रोज सूली पे चढ़ना पड़ा।

(७३)
मेरी आँखों को सपना दिखाया तूने,
मेरी साँसों को चलना सिखाया तूने;
मैं तो बैठा था चुपचाप थक हार कर,
प्यार की राह पर फ़िर चलाया तूने।

(७४)
मेरी शोहरत है तू मेरी इज्जत है तू,
मेरे जीवन की अब इक जरूरत है तू;
मेरे हाथों की अनमिट लकीरों में तू,
मेरे माथे पे लिक्खी वो किस्मत है तू।

(७५)
यों मिलेंगे सुबह शाम सोचा न था,
यों जुडेंगे दोनों नाम सोचा न था;
दिल की बेचैनियाँ हद से बढ़ने लगीं,
प्यार का ऐसा अंजाम सोचा न था।

(७६)
दीप का रोशनी से जो रिश्ता रहा,
चाँद का चाँदनी से जो रिश्ता रहा;
फूल का और खुशबू का रिश्ता है यह,
मेरे जीवन से तेरा जो रिश्ता रहा।

(७७)
तुम मिले तो डगर में उजाले हुए,
मेरे जीवन के रँग ढँग निराले हुए;
देख कर तुझ को साकार होने लगे,
मैंने आँखों में सपने जो पाले हुए।

(७८)
मेरे होठों पे तू एक मुस्कान है,
मेरी आँखों में सपनों का प्रतिमान है;
मेरे प्राणों में हर वक्त बजती हुई,
कोई संगीत की तू मधुर तान है।

(७९)
तेरे होठों की मुस्कान कितनी भली,
ओस में जैसे भीगी हो कोई कली;
तेरी खुशबू से हर पल महकती है अब,
मेरे तन की डगर मेरे मन की गली।

(८०)
रात दिन तेरी चिंता सताती मुझे,
याद हर वक्त अब तेरी आती मुझे;
मेरे कानों में अब गूँजते तेरे स्वर,
जैसे आवाज़ दे तू बुलाती मुझे।

(८१)
धूप में तुझ को मैं छाँह बन कर रहूँ,
राह में तुझ को मैं बाँह बन कर रहूँ;
तेरे जीवन में मैं इस तरह से घुलूं,
तेरे मन में सदा चाह बन कर रहूँ।

(८२)
तेरी हिम्मत पे मुझ को भरोसा बहुत,
तेरी ताकत पे मुझ को भरोसा बहुत;
एक दिन देखना ख़ुद ही चमकेगी यह,
तेरी किस्मत पे मुझ को भरोसा बहुत।

(८३)
मेरे तन में है तू मेरे मन में है तू,
मेरी साँसों के हर एक कण में है तू;
मैं जिधर देखता तू ही तू दीखती ,
मेरी धरती में तू है गगन में है तू।

(८४)
खून बन कर शिराओं में बहती है तू,
मेरी आँखों के सपनों को तहती है तू;
बंद कर आँख मैं देख लेता तुझे,
मेरे मन के झरोखों में रहती है तू।

(८५)
साथ रहतीं मेरे मेरी तन्हाइयाँ,
झाँकतीं तेरी यादों की परछाइयाँ ;
मैं अकेले में महसूस करता हूँ अब,
तेरी सच्चाइयाँ, तेरी अच्छाइयाँ।

(८६)
दिन निकलते ही अब याद आती तेरी ,
शाम ढलते ही अब याद आती तेरी;
मेरी नस नस में अब तेरी यादें बसीं,
दीप जलते ही अब याद आती तेरी।

(८७)
मेरे हालात को तू समझ तो सही,
मेरे ज़ज़बात को तू समझ तो सही;
एक पल भी न हटती मेरे दिल से तू,
मेरी इस बात को तू समझ तो सही।

(८८)
तेरे संदेश अब दिल के आधार हैं,
जोड़ते हैं दिलों को ये वो तार हैं;
आँसुओं में डुबोकर कलम जो लिखे,
मेरे पिघले हुए दिल के उदगार हैं ।

(८९)
मेरा तन मन है तू मेरा जीवन है तू,
मेरा दर्शन है तू मेरा चिंतन है तू;
तू लहू बन के नस नस में बहती है अब,
मेरा अस्तित्व तू दिल की धड़कन है तू।

(९०)
चाहता मन तेरे साथ बैठा रहूँ,
डाल कर हाथ में हाथ बैठा रहूँ;
खेलता ही रहूँ तेरे बालों से मैं,
गोद में ले तेरा माथ बैठा रहूँ।

(९१)
मेरे मन पर बनी इक राँगोली है तू,
मेरे माथे का चंदन है रोली है तू;
जग की हर बदनज़र से बचाऊँ तुझे,
अति ही सीधी है तू अति ही भोली है तू।

(९२)
मेरा तेरा ये रिश्ता न टूटे कभी,
संग मेरा व तेरा न छूटे कभी;
तन भले दो रहें मन मगर एक हों,
मैं न रूँठूँ कभी तू न रूँठे कभी।

(९३)
याद तेरी कभी तो रुलाती मुझे,
याद तेरी कभी फ़िर हँसाती मुझे;
मेरा हर रोम महसूस करता तुझे,
तू छकाती मुझे गुदगुदाती मुझे।

(९४)
याद तेरी मेरे दिल से जाती नहीं,
नीद अब मेरी आँखों में आती नहीं;
रात करवट बदल कर गुजरती मेरी,
दिन में चर्चा किसी की सुहाती नहीं।

(९५)
तू मेरी प्रेरणा मेरा उत्साह तू,
मन में जागी हुई इक नई चाह तू;
बन गई ज़िन्दगी इक सुहाना सफर,
जब से आकर बनी मेरी हमराह तू।

(९६)
दिन गुजरता नहीं रात कटती नहीं,
याद तेरी मेरे दिल से हटती नहीं;
मेरे तन मन में है सिर्फ़ चाहत तेरी,
प्यास मिटती नहीं आस घटती नहीं।

(९७)
तेरे प्राणों की इज्जत समझता हूँ मैं,
तेरे आँसू की कीमत समझता हूँ मैं;
तेरे बिन ज़िन्दगी मेरी कुछ भी नहीं,
तेरी संगति की ताकत समझता हूँ मैं।

(९८)
याद जाती नहीं नींद आती नहीं,
बात दुनिया की कोई भी भाती नहीं ;
जिसमें होता नहीं जिक्र कोई तेरा ,
ऐसी चर्चा मुझे अब सुहाती नहीं।

(९९)
बात का कोई भी हल सुझाई न दे,
राह आगे की कोई दिखाई न दे;
होने लगता है बेचैन क्यों मेरा दिल,
तेरी आवाज़ जिस दिन सुनाई न दे।

(१००)
मुझ पे छाई है बन एक उन्माद तू,
मेरी नस नस में है सिर्फ़ आबाद तू;
मैंने देखा नहीं है कभी कोई पल,
जिसमें आई नहीं है मुझे याद तू। ,

चंद्रभान भारद्वाज

प्रणय-शतक (प्रेमानुभूति का काव्य)-चंद्रभान भारद्वाज

(१)
मेरे दिल को धडकना सिखाया तूने,
मेरे सपनों को उड़ना सिखाया तूने;
मैं तो अनजान था प्यार के नाम से,
प्यार का पाठ पढ़ना सिखाया तूने।

(२)
आज तू मेरे मन का विषय बन गई,
मेरे चिंतन मनन का विषय बन गई;
प्यार की एक पुस्तक जो मन में लिखी,
तू गहन अध्ययन का विषय बन गई।

(३)
एक मूरत बनाकर सजाया तुझे,
मन के मन्दिर में लाकर बिठाया तुझे;
आरती प्यार की रोज करता हूँ अब,
आँख देखें जिधर सिर्फ़ पाया तुझे।

(४)
प्यार हर एक चाहत को मिलता नहीं,
प्यार हर एक हसरत को मिलता नहीं;
प्यार तुझको मिला देना इज्जत इसे,
प्यार हर एक किस्मत को मिलता नहीं।

(५)
मैं अकेला खड़ा था कहीं राह में,
बन के पत्थर पड़ा था कहीं राह में;
तूने आकर समेटी मेरी ज़िन्दगी,
मैं तो बिखरा पड़ा था कहीं राह में।

(६)

तेरी यादों को मोती बनाता रहूँ,
अपने दिल में उन्हें फ़िर सजाता रहूँ;
तेरी आंखों से आंसू जहाँ भी गिरें,
अपनी पलकों से उनको उठाता रहूँ।

(७)
तेरी आवाज़ अब ज़िन्दगी है मेरी,
तेरा अंदाज़ अब ज़िन्दगी है मेरी;
गर्व तुझ पर बहुत यार करते हैं हम,
तेरा हर नाज़ अब ज़िन्दगी है मेरी।

(८)
गम की दुनिया में तू इक खुशी बन गई,
एक पल में मेरी ज़िन्दगी बन गई;
झाँक कर मेरी आंखों में देखो कभी,
मेरे जीवन की तू रोशनी बन गई।

(9)
फूल बन कर तुझे मैं जगाऊँ सुबह,
ओस बनकर तुझे मैं भिगाऊं सुबह;
मैं हवाओं से खुशबू चुराऊँ सुबह,
गंध बन कर तुझी में समाऊँ सुबह।

(१०)
दर्द सीने में अपने छिपाता रहा,
रात दिन स्वप्न तेरे सजाता रहा;
कोई काँटा चुभे ना तेरे पाँव में,
राह में तेरी दिल को बिछाता रहा।

(११)
रात दिन तुम ख़यालों में आने लगे,
मेरी साँसों में प्राणों में छाने लगे;
मेरे अरमान सोये पड़े थे कहीं,
तेरे सपने उन्हें फ़िर जगाने लगे।

(१२)
जिदगी जबसे मेरी अकेली हुई,
पीर ही सिर्फ़ उसकी सहेली हुई;
तूने आकर न जाने क्या जादू किया,
ज़िन्दगी फ़िर से दुल्हन नवेली हुई।

(१३)
चाँदनी रात भी रात होती अलग ,
प्यार की यार बरसात होती अलग;
राह में साथ होती अगर तू कहीं,
ज़िन्दगी एक सौगात होती अलग।

(१४)
पीर से मेरे प्राणों की शादी हुई,
ज़िन्दगी बस अंधेरों की आदी हुई,
तेरी नज़रों ने जब से छुआ है मुझे,
ज़िन्दगी मेरी फूलों की वादी हुई।

(१५)
तुझको शायद नहीं कोई अंदाज़ है,
तू मेरा प्यार तुझ पर मुझे नाज़ है;
अब तेरे नाम से नाम मेरा जुडा,
मेरी तकदीर तू सर का तू ताज है।

(१६ )
रिश्ते यादों के सब तोड़ आया था मैं,
हर घरोंदा स्वयं फोड़ आया था मैं;
तूने लाकर खड़ा क़र दिया फ़िर वहीँ,
जिस गली को कभी छोड़ आया था मैं।

(१७)
मन के उपवन में तू इक चटकती कली,
मन के आँगन में तू इक चहकती कली;
मेरे जीवन में तू प्राण की डाल पर,
मन की क्यारी में तू इक महकती कली।

(१८)
मेरी आहों में तू मेरी चाहों में तू ,
मेरी मंजिल में तू मेरी राहों में तू;
मेरे तन मन में तू घुल गई इस तरह,
मेरे प्राणों में तू मेरी बाँहों में तू।

(१९)
राह मेरी न जाने कहाँ मुड गई,
दिन का सुख रात की नीद भी उड़ गई;
वक्त लाकर खड़ा कर गया है कहाँ,
तुमसे सहसा मेरी ज़िन्दगी जुड़ गई।

(२०)
मेरी धड़कन मेरी जिंदगानी है तू,
मेरे दिल पर लिखी इक कहानी है तू;
मेरी हर साँस पर राज करती है तू,
मेरे सपनों की अब राजधानी है तू।

(२१)
मेरी सब प्रार्थनाएं हैं तेरे लिए,
मेरी सब भावनाएं हैं तेरे लिए;
मैंने जीवन समर्पित तुझे कर दिया,
मेरी सारी दुआएं हैं तेरे लिए।

(२२)
मेरा घर द्वार तू मेरा संसार तू,
मेरे सपनों की है सिर्फ़ हक़दार तू;
मन के मन्दिर में मेरे तेरी मूर्ति है,
मेरी पूजा है तू है मेरा प्यार तू।

(२३)
मेरे भीगे हुए नैन पहले न थे,
मेरे सिसके हुए बैन पहले न थे;
तुझ से मिलने से पहले अकेला तो था,
प्राण पर ऐसे बेचैन पहले न थे।

(२४)
मेरे हालात तुझ को पता ही नहीं,
मेरे जजबात तुझ को पता ही नहीं;
मैंने तन मन को तेरे हवाले किया,
मेरी यह बात तुझ को पत्ता ही नहीं।

(२५)
तेरे हाथों में मेंहदी लगाता रहूँ ,
तेरे कदमों में कलियाँ बिछाता रहूँ;
बन के खुशबू हवाओं में घुलती रहो,
तेरी साँसों को चंदन बनाता रहूँ।

(२६)
मेरी नज़रों में परियों की रानी है तू,
प्यार की एक सुंदर कहानी है तू;
अपनी लहरों में मुझको बहा ले गई,
चढ़ती नदिया की चंचल रवानी है तू।

(२७)
मुझ को अच्छी तरह से यह अहसास है,
मेरा नादान दिल अब तेरे पास है;
इस ज़माने से मुझ को न लेना है कुछ,
मेरे जीवन में अब सिर्फ़ तू खास है।

(२८)
मेरे हाथों की अनमिट लकीरों में तू,
मेरे प्राणों के अनमोल हीरों में तू;
बाँध कर जिनमें रक्खा हुआ है मुझे,
प्यार की अनदिखी उन जंजीरों में तू।

(२९)

जन्म जन्मों का कोई भी रिश्ता है तू,
मेरी नज़रों में कोई फ़रिश्ता है तू;
कच्चे धागे में बांधा हुआ है जिसे,
प्यार का एक बेनाम रिश्ता है तू।

(३०)
राह मेरी अभी तक थी बहकी हुई,
तुम मिले तो लगी राह महकी हुई;
तेरी नज़रों ने जब से छुआ है मुझे,
ज़िन्दगी फ़िर से लगती है चहकी हुई।

(३१)
जब से बाँहों में चाहत सिमटने लगी,
बीच दोनों की दूरी भी घटने लगी;
पाठ कैसा पढ़ा कर गई तू इसे,
ज़िन्दगी नाम तेरा ही रटने लगी।

(३२)
मैं अंधेरे में तुझ को उजारा बनूँ,
जब थको राह में तो सहारा बनूँ,
तेरे आकाश में जितने भी तारे हैं,
उनमें सबसे चमकता सितारा बनूँ।

(३३)
दर्द में जैसे कोई खुशी मिल गई,
घुप अंधेरे में इक रोशनी मिल गई;
द्वार पर मौत आकर खड़ी थी मेरे,
तू मिली तो नई ज़िन्दगी मिल गई।

(३४)
तेरी यादों का इक सिलसिला मिल गया,
मेरे सपनों को इक घोंसला मिल गया;
बंद धड़कन जगा दी है तूने मेरी,
मैं अकेला था अब काफिला मिल गया।

(३५)
मेरे एकाकी जीवन की है मीत तू,
मेरी सुनसान राहों का संगीत तू;
मैं तो बैठा हुआ हार कर ज़िन्दगी,
मेरे हारे हुए मन की है जीत तू।

(३६)
पहले आना न था पहले जाना न था,
अपना रिश्ता भी कोई पुराना न था;
जब से तू मिल गई तब से लगने लगा,
ज़िन्दगी में तेरे बिन ठिकाना न था।

(३७)
मेरा मकसद है तू मेरी मंजिल है तू,
मेरे जीवन के कण कण में शामिल है तू;
मेरे सीने में हर दम धड़कता है जो,
मेरा नाज़ुक सा मासूम सा दिल है तू।

(३८)
मेरी साँसों में खुशबू महकती तेरी,
मेरे कानों में आहट खनकती तेरी;
मैं रखूँ खोल कर या रखूँ बंद मै,
मेरी आंखों में सूरत चमकती तेरी।

(३९)
मेरे सपनों में छाई है तेरी हँसी,
मेरे दिल में समाई है तेरी हँसी;
मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे,
याद जब जब भी आई है तेरी हँसी।

(४०)
पहले मेरा कहीं भी ठिकाना न था,
कोई बैठक कोई आशियाना न था;
जब से तू मिल गई ज़िन्दगी मिल गई,
वरना जीने का कोई बहाना न था।

Saturday, October 10, 2009

टूटी आस्थाएं

ढह गए विश्वास टूटी आस्थाएं;
दर्द बन कर रह गईं हैं प्रार्थनाएं।

प्रश्नचिन्हों से घिरे हैं न्यायमंदिर,
हाथ में कुरआन गीता हम उठाएं।

दीप की जलती हुई लौ तो बुझातीं,
आग को पर और दहकातीं हवाएं।

कौन के आगे करें शिकवा शिकायत,
जब बिना अपराध ही मिलतीं सजाएं।

थक गए हैं पांव राहें खो गईं हैं,
ज़िन्दगी का धर्म अब कैसे निभाएं।

लिख दिए हैं जो ह्रदय की सत शिला पर ,
प्यार के अभिलेख वे कैसे मिटाएँ।

रेत का आधार 'भारद्वाज' लेकर,
भव्य सपनों के महल कैसे बनाएं।

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 15, 2009

नदी प्यार की

तन के आँगन में वर्षा हुई प्यार की;
मन में बहने लगी इक नदी प्यार की।

चार पल ही बिताये कभी साथ में,
लगता जी ली हो पूरी सदी प्यार की 

स्वाद अब और कोई सुहाता नहीं,
जब से प्राणों ने बूटी चखी प्यार की।

घुल गई है हवाओं में चारों तरफ़,
ऐसी साँसों में खुशबू भरी प्यार की।

ज़िन्दगी में अँधेरे रहे ही नहीं,
देख ली है नई रोशनी प्यार की।

कोरे मन पर उभरते रहे शेर सब,
जब नज़र ने ग़ज़ल इक लिखी प्यार की।

कामनाओं का वन लहलहाने लगा,
मिल गई जब जड़ों को नमी प्यार की।

वह समझने लगा बादशाहत मिली,
जिसको भी मिल गई इक कनी प्यार की।

टीस बन कर उभरती रहे उम्र भर,
हो 'भरद्वाज' यदि इक कमी प्यार की।

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 8, 2009

साधनाओं में तुम

हो हवाओं में तुम सब दिशाओं में तुम;
रम रहीं मेरे मन की गुफाओं में तुम।

झांकता हूँ शरद रात्रि में जब गगन,
दीखतीं चंद्रमा की कलाओं में तुम।

हो गया है निगाहों में कैसा असर,
मुझको लगती हो जलती शमाओं में तुम।

मैंने लिखने को जब भी उठाई कलम,
गीत ग़ज़लों में प्रहसन कथाओं में तुम।

जब भी मन्दिर में जाकर झुकाया है सिर,
मेरी माँगी हुई सब दुआओं में तुम।

पढ़ के देखा है वेदों पुराणों को भी,
वेदवाणी में तुम हो ऋचाओं में तुम।

जंगलों से गुजरते समय यों लगा,
पेड़ के संग लिपटी लताओं में तुम।

मेरे प्राणों में साँसों उसासों में ख़ुद,
खून बन बहतीं मेरी शिराओं में तुम।

ध्यान करते समय भी 'भरद्वाज' की,
भावनाओं में तुम साधनाओं में तुम।

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, September 2, 2009

सपने दिखा प्यार के

चल दिया कोई सपने दिखा प्यार के;
सूझता है न अब कुछ सिवा प्यार के।

आह आंसू तड़प हिचकियाँ सिसकियाँ,
दर्द बदले में केवल मिला प्यार के।

क्यों न जाने ज़माने की बदली नज़र,
जबसे खुद को हवाले किया प्यार के।

मोतियों की लड़ॊं से सजी हो भले,
अर्थ क्या ज़िन्दगी का बिना प्यार के।

तुमको कांटों भरी सब मिलीं हों भले,
फूल राहों में सब की बिछा प्यार के।

जो घृणा के अंधेरों में भटके हुए,
कुछ उजाले भी उनको दिखा प्यार के।

मोल अनमोल था जिस 'भरद्वाज' का,
मुफ़्त बाजार में वह बिका प्यार के।

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, August 16, 2009

देखा नहीं

प्यार ने आग पानी को देखा नहीं;
होम होती जवानी को देखा नहीं।

ताज ठुकरा दिया बोझ सिर का समझ,
प्यार ने हुक्मरानी को देखा नहीं।

प्यार की राह में मोड़ ही मोड़ हैं,
मोड़ लेती कहानी को देखा नहीं।

गिर गई गांठ से कब कहाँ क्या पता,
प्यार की उस निशानी को देखा नही।

प्यार केवल फकीरी ही करती रही,
करते राजा या रानी को देखा नहीं।

तुमने देखा ही क्या ज़िन्दगी में अगर,
प्यार की मेहरबानी को देखा नहीं।

बोलने से भी ज्यादा असरदार है,
प्यार की बेजुबानी को देखा नहीं।

है समर्पण है विश्वास है आस्था,
प्यार ने बदगुमानी को देखा नहीं।

गूढ़ भाषा 'भरद्वाज' है प्यार की,
पढ़ते पंडित या ग्यानी को देखा नहीं।

चंद्रभान भारद्वाज


Monday, August 3, 2009

करवटों में कटी

प्यार की इक उमर करवटों में कटी;
चाहतों में कटी आहटों में कटी।

हो प्रतीक्षा की या हो विरह की घड़ी,
खिड़कियों में कटी चौखटों में कटी।

जिनके प्रियतम बसे दूर परदेश में,
उनकी विरहन उमर घूंघटों में कटी।

प्यार के तेल बिन जो जले ही नहीं,
उन दियों की उमर दीवटों में कटी।

प्यार के इक कुए से दिलासा लिए,
गागरों की उमर पनघटों में कटी।

प्यार के तंत्र में साधना रत उमर,
पागलों की तरह मरघटों में कटी।

प्यार में डूब कर जो न उबरे कभी,
वय 'भरद्वाज' उनकी लटों में कटी।

चंद्रभान भारद्वाज

मेरा अनुवाद तुम

मूल कविता हूँ मैं मेरा अनुवाद तुम;
मेरे लेखन की हो एक बुनियाद तुम।

मैं अमर शब्द हूँ तुम अमर काव्य हो,
हूँ परम ब्रह्म मैं हो अमर नाद तुम।

तुम हो काशी मेरी तुम हो काबा मेरा,
मन के मन्दिर में मस्जिद में आबाद तुम।

जिसमें आठों पहर ज्योति जलती सदा,
सिद्ध वह पीठ तुम सिद्ध वह पाद तुम।

बैठ कर जिसमें करता रहा ध्यान मैं
स्वच्छ परिवेश में शांत प्रासाद तुम।

रात दिन मैं ह्रदय में संजोता जिन्हें,
मेरे अभिनय के जैसे हो संवाद तुम।

बह रहे रक्त बन कर नसों में मेरी,
मन का उन्माद तुम मन का आल्हाद तुम।

मेरा दर्शन हो चिंतन हो सत्संग हो,
ऋषि 'भरद्वाज' मैं हो परीजाद तुम।

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, May 9, 2009

हंस सब उड़ गए

सूखती झील में काइयाँ रह गईं;
हंस सब उड़ गए मछलियाँ रह गईं।

रेत सी उम्र कण कण बिखरती रही,
हाथ खाली बँधी मुट्ठियाँ रह गईं।

सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।

अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं।

यह सियासत पुलिंदा बनी झूठ का,
गाँठ में गालियाँ फ़ब्तियाँ रह गईं।

अब घटाओं में पानी रहा ही नहीं,
गड़गड़ाहट रही बिजलियाँ रह गईं।

रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।

प्यार के ख़त नदी में बहाए मगर,
याद की शेष कुछ सीपियाँ रह गईं।

काट कर दिल 'भरद्वाज' लिख दी ग़ज़ल,
पर कहीं ख़म कहीं खामियाँ रह गईं।

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, May 5, 2009

एक सपना पलक पर सजा तो सही

ज़िन्दगी को कभी आजमा तो सही;
एक सपना पलक पर सजा तो सही।

पाँव ऊँचाइयों के शिखर छू सकें,
सोच को पंख अपने लगा तो सही।

बाजुओं में सिमट आएगा यह गगन,
कोई कोना पकड़ कर झुका तो सही।

मोम पत्थर गला कर बनाती है वो,
आग सीने में थोडी जला तो सही।

कर न परवाह ऊँची लहर की अभी,
रेत का इक घरोंदा बना तो सही।

आँधियाँ राह अपनी निकल जाएँगी,
डालियाँ सब अहम् की नवा तो सही।

एक दिन लोग ईसा बना देंगे ख़ुद,
पहले सूली पे ख़ुद को चढ़ा तो सही।

खोलता द्वार अवसर सभी के लिए,
बस किवाड़ें तनिक खटखटा तो सही।

प्यार को अर्घ्य देना 'भरद्वाज' पर,
आंसुओं की नदी में नहा तो सही।

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, April 25, 2009

न मौसम का भरोसा है

हवाओं का भरोसा है न मौसम का भरोसा है;
चमन को अब बहारों का न शबनम का भरोसा है।

विषैली बेल शंका की उगी विश्वास की जड़ में,
न फूलों का न खुशबू का न आलम का भरोसा है।

जड़ों में नाग लिपटे हैं जमे हैं गिद्ध डालों पर,
कहाँ बैठें न बरगद का न शीशम का भरोसा है।

दवा के नाम पर अब तक कुरेदा सिर्फ़ घावों को,
भरें कैसे हकीमों का न मरहम का भरोसा है।

घिरे हैं राहुओं और केतुओं से चाँद सूरज अब,
उजालों का सितारों का न पूनम का भरोसा है।

पतन की राह में अब सभ्यता इस दौर तक पहुँची,
जुलेखा का न सीता का न मरियम का भरोसा है।

पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी,
अजब हालात हैं कुर्सी न जाजम का भरोसा है।

जुलाहों की बुनी चादर सिकुड़ कर हो गई छोटी,
करें अब क्या न खादी का न रेशम का भरोसा है।

नदी आश्वासनों की सिर्फ़ सूखी रेत दिखती है,
न 'भारद्वाज' उदगम का न निर्गम का भरोसा है।

चंद्रभान भारद्वाज




Sunday, April 12, 2009

ज्योति कैसे जलेगी जलाए बिना

दीप को वर्तिका से मिलाए बिना;
ज्योति कैसे जलेगी जलाए बिना।

स्वप्न आकार लेंगे भला किस तरह,
हौसलों को अगन में गलाए बिना।

ज़िन्दगी में चटक रंग कब भर सके,
सोये अरमान के कुलबुलाए बिना।

एक तारा कभी टूटता ही नहीं,
दूर आकाश में खिलखिलाए बिना।

प्यार का अर्थ आता समझ में नहीं,
आँख में अश्रु के छलछलाए बिना।

तुम इधर मौन हो वह उधर मौन है,
बात कैसे चलेगी चलाए बिना।

लाख परदे गिराकर रखो ओट में,
रूप रहता नहीं झिलमिलाए बिना।

शब्द के विष बुझे बाण जब भी चुभे,
कौन सा दिल बचा तिलमिलाए बिना।

वे बहारें 'भरद्वाज' किस काम की,
जो गईं फूल कोई खिलाए बिना।

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, April 5, 2009

ख़ुद को भला तो बना

चार तिनके जुटा घोंसला तो बना;
ज़िन्दगी का कहीं सिलसिला तो बना।

इक पहल एक रिश्ता बने ना बने,
जान पहचान का मामला तो बना।

कुछ कदम तुम बढ़े कुछ कदम हम बढ़े, ,
कर गुजरने का कुछ हौसला तो बना।

ज़िन्दगी एक ठहरी हुई झील है,
कर तरंगित कहीं बुलबुला तो बना।

सन्न सुनसान में एक आवाज दे,
गूँज से जोश का जलजला तो बना।

फ़िर बनाना कभी ताज सा इक महल,
प्यार में प्राण को बावला तो बना।

यह ज़माना नहीं है भला ना सही,
पर 'भरद्वाज' ख़ुद को भला तो बना।

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, March 14, 2009

सुंदर दिखाई दे

हों बंद पलकें रोशनी भीतर दिखाई दे;
तो ज़िन्दगी कुछ और भी सुंदर दिखाई दे।

जब आदमी की आस्था विश्वास तक पहुंचे,
तो राह का कंकर दया शंकर दिखाई दे।

अनमोल होगा जौहरी की आँख में हीरा,
फक्कड़ फकीरी आँख को पत्थर दिखाई दे।

जब पोंछते हैं धूल मन के बंद दर्पण की,
अंदर रहा जैसा वही बाहर दिखाई दे।

हों बंद सारे रास्ते सब द्वार सब खिड़की,
खुलता क्षितिज के पार कोई दर दिखाई दे।

जब सिर झुकाता हूँ टंगी तस्वीर के आगे,
माँ में बसा मुझको सदा ईश्वर दिखाई दे।

आंजा हुआ है आँख में वह प्यार का अंजन,
हर ओर 'भारद्वाज' को प्रियवर दिखाई दे।

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, March 6, 2009

ज़िन्दगी का प्यार मानना

कठिनाइयों को ज़िन्दगी का प्यार मानना;
ठोकर लगे तो जीत का इक द्वार मानना।

रखना निगाहों में सदा तारे बिछे हुए,
कांटा चुभे तो फूल की बौछार मानना।


सुलगा हुआ रखना यहाँ चूल्हा इक आस का,
सब रोटियों पर भूख का अधिकार मानना।


आने लगेंगीं ख़ुद उधर की आहटें इधर,
दीवार को भी अधखुला सा द्वार मानना।


जो शब्द बनते सनसनी कुछ देर भीड़ में,
रचना नहीं वह शाम का अखबार मानना।

रक्खी गई हो शर्त जिसमें लेन -देन की,
उस प्यार को बस देह का व्यापार मानना।

लिखने लगें नाखून जब अक्षर ज़मीन पर,
तो प्यार के प्रस्ताव को स्वीकार मानना।

ये शेर कागज पर सिहाई से लिखे नहीं,
ये खून से लिक्खे हुए उदगार मानना।

उफनी नदी की धार में वह कूद ही गया,
डूबा है 'भारद्वाज' फ़िर भी पार मानना।

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, March 1, 2009

ग़ज़लगो चंद्रभान भारद्वाज - डॉ. महेंद्र भटनागर

ग़ज़लगो श्री. चंद्रभान भारद्वाज
[संदर्भ : 'पगडंडियाँ']
— समीक्षक : डा. महेंद्रभटनागर
’पगडंडियाँ’ श्री चंद्रभानु भारद्वाज की ग़ज़लों और गीतों का संग्रह है। ’पगडंडियाँ’ कवि की भावधारा और अभिव्यक्ति प्रणाली को भली-भाँति स्पष्ट करती है। कवि में अनुभूति की सघनता है। अपना दर्द बयान करने का अपना अन्दाज़ है। कवि-कौशल के प्रति भी वह सजग है। पर, कवि की सबसे बड़ी शक्ति है — प्रांजलता। अतः उसका काव्य सम्प्रेषणीय है। ‘पगडंडियाँ’ कविता के आकर्षण और प्रभाव से भरपूर है। जहाँ तक गीतों का संबंध है, हिन्दी-पाठक को इतनी नवीनता दृग्गोचर नहीं होती, पर संग्रह की ग़ज़लें अपनी प्रभविष्णुता में बेजोड़ हैं। उनसे पाठकों का आवर्जन निःसंदेह खूब होता है। ग़ज़लें उर्दू की पद्धति पर होते हुए भी उसकी रंगत से मुक्त हैं। वे कोई नागरी लिपि में लिखी उर्दू-ग़ज़लें नहीं हैं। यही कारण है, ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक पर अपना सद्यः प्रभाव अंकित करती हैं। संग्रह में सर्वत्र आभिजात्य और शालीनता परिव्याप्त है — कथ्य और कथन-भंगिमा में। ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक को अभिभूत करती हैं। लगता है। कविता वापस आ रही है। अपने नये अन्दाज़ में, नये परिधान में।
‘पगडंडियाँ का मूल स्वर है — दर्द। कवि के जीवन में वेदना का भाग अधिक है। वेदनानुभूतियों से उसका जीवन-सिक्त है। निःसंदेह, वेदना-बोझिल जीवन जीना कठिन होता है। पर, कवि ने अपनी जीवन-वेदना से अपने गीतों का अभिषेक किया है। इस दर्द ने उसकी भावनाओं-संवेदनाओं को तीव्रता और गहराई प्रदान की है :
.
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये !
दर्द से अनजान पहले थे मगर
दर्द-हम पर्याय होकर रह गये !
.
और जब दर्द से पहचान हो जाती है — जब दर्द जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है— तब गीतों की सर्जना कितनी सहज हो जाती है :
.
हो गयी है दर्द से पहचान मेरे गीत की
वेदनाएँ बन गयीं मेहमान मेरे गीत की !
द्वार पर आकर अगर दस्तक न देता दर्द तो
देहरी रहती सदा सुनसान मेरे गीत की !
.
जीवन की विषमताओं, प्रतिकूलताओं और विभीषिकाओं को हँस-हँस कर झेल लेने का यही रहस्य है। अतृप्त अभिलाषाओं और निपट अकेलेपन की घुटन को सह लेने की क्षमता जीवन की वास्तविकता का बोध ही नहीं कराती, उसे अर्थवान बनाने की प्रेरणा भी देती है :
.
सपने के शीश-महल फिर चकनाचूर हुए
जब साँझ लगी घिरने अपने साए भी दूर हुए !
अब तो आदत बन गयी दर्द हँस-हँस कर पीने की
पहले-पहले पीने में कूछ बेचैन ज़रूर हुए !
.
इस दर्द की बुनियाद कहाँ है ? कहना न होगा, इसके सूत्र प्रेम की भूमि में गड़े हैं। अवस्था-विशेष में प्रेयसी जीवन-सार्थकता की प्रतीक बन जाती है। उसको न पा सकना जीवन को निस्सार बना देता है। कल्पनाओं के सारे गगन-चुम्बी भवन क्षण भर में ढह जाते हैं :
.
प्यार के पुख़्ता धरालत पर बनाये थे महल
पर बिना आधार के मीनार से ढहते रहे,
हो गयी बेहद पराई-सी छुअन हर बाँह की
कल तलक जिसको बड़े एतबार से गहते रहे !
.
ऐसा क्यों होता है ? इसकी पृष्ठभूमि में सामाजिक यथार्थ की कठोर चट्टाने हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इच्छानुसार जीवन-राह का निर्माण सदैव सम्भव नहीं :
.
जानता हूँ मैं असम्भव लौटना मेरे लिए
संग चलना इस समय तेरे लिए मुमकिन नहीं,
मोड़ना मन के मुताबिक है नहीं इतना सरल
ज़िन्दगी है ज़िन्दगी कोई कथा प्रहसन नहीं !
.
और इसी स्थल पर ज़माने से टक्कर लेनी पड़ती है :
.
यार हमकों सिर्फ़ इतनी बात का डर है
हर नज़र पत्थर लिए यह काँच का घर है !
.
ज़माने का विष पीकर ज़िन्दगी उठती-गिरती रहती है :
.
थे यहाँ मधुकलश सारे विष भरे
असलियत मालूम हुई जब पी लिए,
देह पर तो लग गये टाँके मगर
रह गये सब घाव लेकिन अनसिये !
.
और अतं में जब हिसाब किया जाता है तो शेष बचता है — दर्द :
.
जीवन के समीकरण
जब किये सरल
सब जोड़ घटा कर
बचा दर्द केवल !
.
और इस दर्द का — आँसुओं का — अनुवाद करने में कवि सिद्ध-हस्त है। उसके जीवन की सभी पगडंडियाँ वेदना की गिट्टियों से बनी हैं। किन्तु इन पगडंडियों से वह रोकर नहीं गुज़रा; गाकर गुज़रा है:
.
डूब गयी इसलिए दर्द में
पूरी रामकहानी मेरी
आँसू ने भूमिका और
पीड़ा ने उपसंहार लिखा है !
.
‘पंगडडियाँ' के कवि की सबसे बड़ी शक्ति उसके कथन में निहित है। कथ्य में एकांगिता ज़रूर है, पर अभिव्यक्ति में वैविध्य और ताज़गी है। जीवन-स्थितियों को नयी-नयी उपमाओं से मुखर किया गया है, यथा —
1. तन बस्तर
मन हुआ झाबुआ
सपने भील हुए
भोली वन-कन्याओं सी
लुट गयी अपेक्षाएँ
‘घोटुल’ की दीवारों में
घुट गयी प्रतीक्षाएँ।
.
2. ठहर जातीं उलझकर ये निगाहें इस तरह अक्‍सर
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे,
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गयीं सरगर्मियाँ इतनी
चला आया बड़ा हाक़िम किसी तहसील में जैसे।
चुराकर वक़्‍त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे !
.
वैषम्य-कौशल से भी जीवन के अनेक सत्य उजागर हुए हैं :
.
1. बढ़ती चली गयी उम्र हर एक घूँट पर
हमने पिया है विष भी इतने कमाल से !
2. वक़्‍त ने फैला दिये हैं पाँव मीलों तक
पास अपने सिर्फ़ दो बालिश्त चादर है !
.
प्रेम की अनुभूतियों को ग़ज़ल का परिधान पहनाने में कवि अप्रतिम है। एक-एक पंक्ति संतुलित और पैनी है। सम्पूर्ण ‘पगडंडियाँ’ काव्य-रस से आप्लावित है।
.

Friday, February 20, 2009

करवटों का हिसाब रखना

नीद की इक किताब रखना;
करवटों का हिसाब रखना।

पत्थरों का मिजाज़ पढ़ना,
हाथ में फ़िर गुलाब रखना।

हर डगर में सवाल होंगे,
हर कदम पर जवाब रखना।

धड़कनों में जूनून कोई,
साँस में इन्कलाब रखना।

आग रखना जली जिगर में,
आँख झेलम चनाब रखना।

वक्त सबको सिखा रहा है,
बस जड़ों में तेजाब रखना।

छोड़ अब 'भारद्वाज' अपने,
चेहरे पर नकाब रखना।

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, January 20, 2009

देखे

कमजोर पत्थर के बने आधार भी देखे,
ढहते हुए पुख्ता दरो-दीवार भी देखे।

ढलता न था सूरज जहाँ होती न थीं रातें,
मिटते हुए वे राज वे दरबार भी देखे।

जकड़े हुए थे प्यार की जंजीर में युग से,
इस दौर में वे टूटते परिवार भी देखे।

बाजार सब को तौलता है अब तराजू में,
फन बेचते अपना यहाँ फनकार भी देखे।

सम्मान होना था शहीदों देश-भक्तों का,
पर मंच पर बैठे हुए गद्दार भी देखे।

जो एक मृग-तृष्णा लिये बस भागती फिरती,
इस ज़िन्दगी के टूटते एतबार भी देखे।

सूखी टहनियों पर बने थे दाग पत्थर के,
उजड़े चमन ने पेड़ वे फलदार भी देखे।

लौटा शहर से गाँव तो भीगी पलक देखीं,
यादें खड़ी थीं मौन वे घर-बार भी देखे।

यह प्यार 'भारद्वाज' सदियों की कहानी है,
छलते इसे इकरार भी इनकार भी देखे।

चंद॒भान भारद्वाज

Sunday, January 18, 2009

देखते हैं

तनिक सरहदें लाँघ कर देखते हैं;
उधर की हवा झाँक कर देखते हैं।

मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवेदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।

खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।

पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।

किनारे कहाँ तक सँभाले रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।

समय ने हमें सिर्फ रेवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।

'भरद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।

चंद॒भान भारद्वाज

Tuesday, January 13, 2009

आने लगीं

जब फसल में फूल फलियाँ बालियाँ आने लगीं;
खेत में चारों तरफ से टिड्डियाँ आने लगीं।

आम का इक पेड़ आंगन में लगाया था कभी,
पत्थरों से घर भरा जब आमियाँ आने लगीं।

जब कली से फूल बनने की क्रिया पूरी हुई,
डाल पर तब तितलियाँ मधुमक्खियाँ आने लगीं।

भागतीं फिरतीं रहीं कल तक उमर से बेखबर ,
उन लड़कियों के गले में चुन्नियाँ आने लगीं।

ज़िन्दगी को आ गया सजने संवरने का हुनर,
पायलें झुमके नथनियाँ चूड़ियां आने लगीं।

जिन घरों में शादियों की बात पक्की हो गई,
देख कर शुभ लग्न पीली पातियाँ आने लगीं।

हो रहे हालात बदतर डाकघर के दिन-ब-दिन,
आजकल ई-मेल से सब चिट्ठियाँ आने लगीं।

याद आई गाँव की परदेशियों को जिस घड़ी ,
दफ्तरों में छुट्टियों की अर्जियाँ आने लगीं।

पढ़ जिन्हें झुकतीं निगाहें आज 'भारद्वाज' खुद,
रोज अब अखबार में वे सुर्खियाँ आने लगीं।

चंद॒भान भारद्वाज

Thursday, January 8, 2009

देकर गया

मानता था मन सगा जिसको दगा देकर गया;
प्यार अक्सर ज़िन्दगी को इक सज़ा देकर गया।

दर्द जब कुछ कम हुआ जब दाग कुछ मिटने लगे,
घाव फ़िर कोई न कोई वह नया देकर गया।

जानता था खेलना अच्छा नहीं है आग से,
पर दबी चिनगारियों को वह हवा देकर गया।

याद आता है उमर भर प्यार का वह एक पल,
जो उमर को आंसुओं का सिलसिला देकर गया।

आंसुओं में डूब कर भी ढूंढ लेते हैं हँसी
प्रेमियों को वक्त यह कैसी कला देकर गया।

द्वार सारे बंद थे सब खिड़कियाँ भी बंद थीं,
पर समय कोई न कोई रास्ता देकर गया।

हम कभी बदले स्वयं वातावरण बदला कभी,
दर्द ऐसे में खुशी का सा मज़ा देकर गया।

चंद्रभान भारद्वाज