Wednesday, January 6, 2010

कभी लगती हकीक़त सी

कभी तो ख्वाब सा लगता कभी लगती हकीक़त सी;
मिली है ज़िन्दगी इक क़र्ज़ में डूबी वसीयत सी.

उसूलों के लिए जो जान देते थे कभी अपनी,
वे खुद करने लगे हैं अब उसूलों की तिजारत सी.

कभी जिनके  इशारों पर हवा का रुख बदलता था ,
हवा करने लगी है अब स्वयं उनसे बगावत सी.

रखा जिसके लिए अपना हरिक सपना यहाँ गिरवी, 
दिखी उसकी निगाहों में झलकती अब हिकारत सी.

न उनको भूल ही पाते न चर्चाओं में ला पाते,
रखीं दिल में अभी तक कुछ मधुर यादें अमानत सी.

कभी रिश्तों की सोंधी सी महक उठती थी जिस घर में,
वहाँ फैली हुई है आजकल हर ओर नफ़रत सी.  

समझ पाते न 'भारद्वाज' हम उसके इशारों को,
हमारी आत्मा देती हमें हरदम नसीहत सी.

चंद्रभान भारद्वाज
   

2 comments:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

भारद्वाज जी आदाब
वाह, क्या खूब कहा है
कभी रिश्तों की सोंधी सी महक उठती थी जिस घर में,
वहाँ फैली हुई है आजकल हर ओर नफ़रत सी.
हासिले-ग़ज़ल शेर है आपका
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

निर्मला कपिला said...

अपकी गज़ल के लिये कुछ कह नहीं सकती कल्म मे इतनी सामर्थ्य नहीं है आप्की गज़ल पढ कर सीखती हूँ बस बहुत बहुत शुभकामनायें