Monday, June 20, 2016


                 यह मर्ज़ी भगवान की
  
उनकी चाहत शीशमहल से आलीशान मकान की
अपनी चाहत शाम सवेरे बस मुट्ठी भर धान की

बिन मौसम आँधी ओले तो फसलें चौपट कर गये
अनब्याही बैठी है स्यानी  बेटी दीन किसान की

धरती पर संकेत नहीं दिखते हैं कोसों दूर तक
कागज पर अंकित हैं सारी बातें पर उत्थान की

एक सनातन प्रश्न खड़ा है फिर कुर्सी के सामने 
कब तक भर पाएगी खाई निर्धन और धनवान की

उसने तो सच के हाथों प्राणों की डोरी सौंप दी
'भारद्वाज' उड़े उड़े अब यह मर्ज़ी भगवान की


(चंद्रभान भारद्वाज)


        यार मिलना है कठिन

 आज दुश्मन तो मिलेंगे यार मिलना है कठिन
मन भरा हो यदि घृणा से प्यार मिलना है कठिन

हर कदम पर चक्रव्यूहों से घिरा जीवन यहाँ
यदि गये अंदर निकासी द्वार मिलना है कठिन

चुभ गया था राह चलते चलते नंगे पाँव में
टीसता है पर वो टूटा खार मिलना है कठिन 

आप यदि इस वक़्त के हाथों की कठपुतली बने
आप  को मन का कोई किरदार मिलना है कठिन

पीटना पड़ता ढिंढोरा अपनी हर उपलब्धि का
वरना श्रीफल शाल या इक हार मिलना है कठिन

भूल बैठी है अगर कोई आँख सपना देखना
कल्पना को फिर कोई आकार मिलना है कठिन

जो उजाले या अंधेरे में अंतर  कर सके
बंधु ऐसी दृष्टि को उजियार मिलना है कठिन

रुख़ हवाओं का बिना देखे उतरतीं धार में
ऐसी नावों को सहज ही पार मिलना है कठिन

यदि पहुँच पाए नहीं उठने से पहले तक वहाँ
आठ दिन से पहले फिर बाज़ार मिलना है कठिन

जल्दबाज़ी में सुबह पूरा पढ़ पाए जिसे
शाम तक वह अधपढ़ा अख़बार मिलना है कठिन

जी रही मुश्किल में 'भारद्वाज' पीढ़ी आज की

नौकरी मिलती नहीं व्यापार मिलना है कठिन

चंद्रभान भारद्वाज 



     और क्या चाहिए

आन है शान है और क्या चाहिए
लोक में मान है और क्या चाहिए

सिर को छत है सुलभ पेट को रोटियाँ
तन को परिधान है और क्या चाहिए

तन तो बलवान है मन दयावान है
चित क्षमावान है और क्या चाहिए

संग अपने ज़माना भले ही हो
संग भगवान है और क्या चाहिए

गाँव के छोर से देश के छोर तक
जान पहचान है और क्या चाहिए

कोई भूखा लौटे कभी द्वार से
प्रभु का वरदान है और क्या चाहिए

यों समस्याएँ आती रहीं सामने
पर समाधान है और क्या चाहिए

घर में आँगन है चौका बगीचा भी है
एक दालान है और क्या चाहिए

कांति चेहरे पे खुशियों की छाई सदा
मुख पे मुस्कान है और क्या चाहिए

आप विद्वद्जनों की सभा में सहज
सबसे पहचान है और क्या चाहिए

जीना अस्सी बरस तक 'भरद्वाज' अब

लगता आसान है और क्या चाहिए   

चंद्रभान भारद्वाज 




बदले तेवर मिले हैं

साधन मिले हैं अवसर मिले हैं
समय के हमें बदले तेवर मिले हैं

मिला है हमें यों तो आकाश सारा
मगर यार कतरे हुए पर मिले हैं

कहा था मिलेगा वहाँ दाना पानी
यहाँ घोसले छोड़ पिंजर मिले हैं

रहे गाँव में तो वहाँ अपना घर था
शहर में मगर लोग बेघर मिले हैं

बनाने चले हैं शहर को वो सुंदर
उजड़ती दुकाने ढहे घर मिले हैं
 
मेरे आम का पेड़ फलने लगा जब
मेरे घर में पत्थर ही पत्थर मिले हैं

सदा जिनसे चाहा था बच कर निकलना
हमें बीच रस्ते में अक्सर मिले हैं

जाने कहाँ हैं वो दिन अपने अच्छे
ये हालात तो बद से बदतर मिले हैं

शिकायत भी करते 'भरद्वाज' किससे

बाबू मिले हैं अफ़सर मिले हैं  

चंद्रभान भारद्वाज 


       कोई सागर भी तो हो

इक नदी जिसमें समाए कोई सागर भी तो हो
प्यार की गहराई जाने ऐसा दिलबर भी तो हो

जल रही है आग जैसे मेरे दिल में प्यार की
ऐसी जलती आग निशदिन उसके अंदर भी तो हो

बाहरी सौंदर्य केवल कोई सुंदरता नहीं
तन से सुंदर है अगर वो मन से सुंदर भी तो हो 

खुद बनाकर ओक पी लेगा कोई मधु पेय को
आँख में उसकी छलकती प्रेम गागर भी तो हो

आरती का थाल रक्खा है सजा कर द्वार पर
खटखटाए द्वार आकर ऐसा मनहर भी तो हो

देह के हर रोम में कब से बसीं हैं गोपियाँ
जो नचाए बाँसुरी पर कोई नटवर भी तो हो

बस परिश्रम ही नहीं कुंजी सफलता की यहाँ
संग में उसके कहीं थोड़ा मुक़द्दर भी तो हो

व्यक्ति गिर कर रास्ते में उठ सकेगा या नहीं
हौसलों को जाँचने की कोई ठोकर भी तो हो

दे गये हैं वो तो आश्वासन कि बरसेंगे यहाँ
पर बरसने का कोई लक्षण कहीं पर भी तो हो

हाथ में आई हुई सत्ता निरंकुश कर दे
वक़्त का इक सख़्त अंकुश उनके सिर पर भी तो हो  

पूज कर मैं तो बना दूँगा उसे भगवान पर

पथ में 'भारद्वाज' ऐसा कोई पत्थर भी तो हो

चंद्रभान भारद्वाज 


           खिन्न होता मन

खिन्न होता मन बहुत व्यवहार दुहरा देख कर
बाँटते खैरात भी कुछ लोग चेहरा देख कर

आपका इतिहास पूरा पल में पढ़ लेंगे यहाँ
घर में घुसते ही महज बैठक का कमरा देख कर

बाँच लेते हैं कहानी मन की चेहरे से तुरत
रूप निखरा देख कर या दर्द उभरा देख कर

हमने पहचाना है उसका मन है सागर दर्द का
उसकी आँखों मे महज आँसू का कतरा देख कर

ईदे-कुर्बा का सहज अनुमान होता है हमें
उसके आँगन में नया प्यारा सा बकरा देख कर

ज़िंदगी का आपकी अंदाज़ हो जाता है खुद
आपके चारों तरफ सामान पसरा देख कर

आदमी होता विवश जब आत्मरक्षा के लिए
रौद्र हो जाता है उसका रूप ख़तरा देख कर

 ज़िंदगी शतरंज सी है मात होना तय यहाँ
आदमी कैसी भी चल ले चाल मोहरा देख कर

दूर से ही लौट जाते चोर पापों के सभी
मन के द्वारों पर सहज संयम का पहरा देख कर

देख कर राहों में काँटों को कदम मत रोकना
क्या कभी रुकता है सूरज पथ में कोहरा देख कर

हर कदम पर लोग धोखा खा ही जाते हैं यहाँ
सिर्फ़ पहनावा किसी का साफ सुथरा देख कर

कुछ पता चलता नहीं है आपकी इस उम्र का
आपके बालों पे काला रंग गहरा देख कर

एक अनहोनी सी आशंका से डर जाता है दिल
आज कल बेटी का चेहरा उतरा उतरा देख कर

लक्ष्मी आती है 'भारद्वाज' सब के द्वार पर
लौट जाती है मगर आँगन में कचरा देख कर 

चंद्रभान  भारद्वाज