Friday, December 21, 2012

                  खोट देखते हैं 

कुछ लोग तो हर बात में ही खोट देखते हैं 
मन पर नहीं तन पर लगी बस चोट देखते हैं 

आदत है जिनकी पीठ के पीछे से वार करना 
वे वार से कुछ और  पहले ओट देखते हैं

पग पग सियासत ने बिछा रक्खी बिसात ऐसी 
इंसान में शतरंज की इक गोट  देखते हैं  

हर रोज घोटाला कि हत्या लूट और डाका 
अखबार के हर पृष्ठ पर विस्फोट देखते हैं 

निपटें बता कार्यालयों में मामलात कैसे 
जब कर्मचारी फाइलों में नोट देखते हैं 

दो वक्त की होती नहीं रोटी नसीब जिनको 
वे कुछ भुने चनों में अखरोट देखते हैं 

डिगने लगा विश्वास अब  जनतंत्र से ही जन का 
नेता तो बस हर योजना में वोट देखते हैं 

अब योग्यता मापी नहीं जाती यहाँ सनद से 
टाई गले में और तन पर कोट देखते हैं 

बैठे  हुए हैं लोग 'भारद्वाज' ले कसौटी 
कद  से भी पहले आपका लंगोट देखते हैं 


चंद्रभान भारद्वाज 

Saturday, November 3, 2012


      ज़िन्दगी बाँट लेंगे 

मिले चाहे गम या ख़ुशी बाँट लेंगे 
चलो संग तो ज़िन्दगी बाँट लेंगे 

न प्यासे रहो तुम न प्यासा रहूँ मैं 
उमंगों की बहती नदी बाँट लेंगे 

न आंधी की चिंता न तूफ़ान का डर 
अँधेरा हो या रोशनी बाँट लेंगे 

करे कौन परवाह अब मौसमों की 
मिले धूप या चांदनी बाँट लेंगे 

उमर फूलती और फलती रहेगी 
पलक पर पिघलती नमी बाँट लेंगे 

किसी बात से भी क्यों मन को दुखाएं 
लगेगी जो अच्छी - भली बाँट लेंगे 

'भरद्वाज' अब देर किस बात की है 
कहो तो सभी कुछ अभी बाँट लेंगे 

चंद्रभान भारद्वाज 

Friday, September 28, 2012

       इक द्वार भी तो हो 
कहीं दीवार में इक द्वार भी तो हो 
घृणा के बीच थोड़ा प्यार भी तो हो 

कहाँ रोएं किसी कंधे पे सिर रख कर 
सहे जो बोझ ऐसा यार भी तो हो 

नहीं उतरेगी आँगन में कोई चिड़िया 
उसे दानों पे इक ऐतवार भी तो हो 

करे फ़रियाद भी कोई कहाँ किससे
सुने जो अर्ज वह सरकार भी तो हो 

सजा लेते पलक पर हम नए सपने 
मगर सपनों में कोई सार भी तो हो 

किले केवल हवाओं में नहीं बनते 
कहीं धरती पे इक आधार भी तो हो 

सभी बैठे हुए हैं नाव को लेकर 
किसी के हाथ में पतवार भी तो हो 

इशारों से कि नज़रों से कि अधरों से 
किसी से प्यार का इज़हार भी तो हो 

लगें पकवान 'भारद्वाज' तब अच्छे 
दिवाली ईद का त्यौहार भी तो हो 

चंद्रभान भरद्वाज




Thursday, August 23, 2012


        गुजरना पड़ा 

मरुथलों से गुजरना पड़ा 
जलथलों से गुजरना पड़ा 

सभ्यता की हरिक राह को 
जंगलों से गुजरना पड़ा 

बीज को पेड़ बनने तलक 
कोंपलों से गुजरना पड़ा 

हर कमल पंखुरी को यहाँ 
दलदलों से गुजरना पड़ा 

विष मिला था हरिक बूँद में 
उन जलों से गुजरना पड़ा 

रास्ते का न कुछ ज्ञान था 
अटकलों से गुजरना पड़ा 

बंद हर द्वार को खोलने 
सांकलों से गुजरना पड़ा 

सूर्य की रोशनी के लिए 
बादलों से गुजरना पड़ा 

युद्ध की हर विजय को सदा 
घायलों से गुजरना पड़ा 

प्यास को तृप्ति की आस में 
छागलों से गुजरना पड़ा 

दर्द बनते 'भरद्वाज' को 
उन पलों से गुजरना पड़ा 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, May 15, 2012

लगती है

                       

कभी सीधी सरल सी राह टेढ़ी राह लगती है 
कि जैसे बात सच कोई महज अफवाह लगती है 

शरणस्थल बनी है डाकुओं की और चोरों की 
इमारत वो जो बाहर से इबादतगाह लगती है 

समझते आ रहे थे एक मंदिर लोग संसद को 
मगर वह आज नेताओं का चारागाह लगती है 

नहीं कुछ वक़्त लगता है उसे बनने में इक खंडहर
महल को जब कभी इक झोंपड़ी की आह लगती है 

चुना है वक़्त ने उसको हमारे गाँव का मुखिया 
कि जिसकी हाजिरी थाने में हर सप्ताह लगती है 

उदासी से भरी है आजकल हर ज़िन्दगी इतनी 
न कुछ उत्साह लगता है न कोई चाह लगती है 

न जाने कर दिया है उसने 'भारद्वाज' क्या जादू 
है कोसों दूर नज़रों से मगर हमराह लगती है 

चंद्रभान भारद्वाज     


Thursday, April 19, 2012

कहाँ रही

वह दोस्ती का दौर वह मस्ती कहाँ रही 
गुलज़ार थी दिन-रात वह बस्ती कहाँ रही 

तूफ़ान की परवाह थी न आँधियों का डर
बारिश का पानी कागजी कश्ती कहाँ रही 

जिसके इशारे पर बदलती रुख सदा हवा 
दरबार का वह रौब वह हस्ती कहाँ रही  

कन्धों पे ज़िन्दगी की जिम्मेदारियाँ लदीं
बेफिक्र अल्हड़पन मटरगश्ती कहाँ रही 


फिरका परस्ती भी रही है बुत परस्ती भी 
लेकिन कभी इंसान परस्ती कहाँ रही 

छत की खबर कोई न कोई दाल-रोटी की 
इस ज़िंदगी को  साँस भी सस्ती कहाँ रही  

बस्तों ने छीना आज  'भारद्वाज' बालपन 
वह बालहट वह जोर-जबरदस्ती कहाँ रही

चंद्रभान भारद्वाज 

Sunday, April 8, 2012

वैश्वीकरण की मार ले डूबी

शहर को हर तरफ वैश्वीकरण की मार ले डूबी 
तरक्की गाँव का हल खेत घर परिवार ले डूबी 

पुरानी साइकिल से तो किया हर  रास्ता पूरा 
नई आसान किश्तों में ख़रीदी कार ले डूबी 

सुरक्षित आ गए कच्ची सड़क से खाते हिचकोले 
मगर पक्की सड़क की भागती रफ़्तार ले डूबी 

हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन 
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी 

किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर 
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डूबी 

न तो जड़ से रहा नाता  न रिश्ता कोई मिट्टी से 
प्रथाओं संस्कारों को समय की धार ले डूबी 

दिया संतोष 'भारद्वाज' घर की दाल रोटी ने 
मगर पीजा की बर्गर की हमें दरकार ले डूबी 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, March 27, 2012

प्रतिसाद भी उसको मिला


हौसले करते फतह कठिनाइयों का हर किला
श्रम किया जिसने यहाँ प्रतिसाद भी उसको मिला

कब तलक करते रहोगे यों प्रतीक्षा राम की
उठ स्वयं जड़ चेतनाओं की अहिल्या को जिला

हाथ में छैनी हथौड़ा को उठाओ तो  सही
खुद ब खुद ढलती चलेगी मूर्ति में हर इक शिला

चील कौए गिद्ध उल्लू हैं विराजित डाल पर
है मगर निर्वासिता सी बाग़ में अब कोकिला

जय-पराजय दुक्ख-सुख या लाभ- हानि न देख अब
अंग हैं ये ज़िन्दगी के कर न कुछ शिकवा गिला

इक अटल विश्वास से रख राह में पहला कदम
हर कदम पर देखना बनता चलेगा काफिला

उसकी सत्ता के नियम क़ानून हैं बिलकुल सरल
आदमी पाता है अपने-अपने कर्मों का सिला

हर शिरा क्षय ग्रस्त है अभिशप्त है वातावरण
बंद कर दूषित हवाओं आँधियों का सिलसिला

आदमी सोता है 'भारद्वाज' जब चिर नीद में
पूछती है मौत आखिर ज़िन्दगी में क्या मिला

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, March 26, 2012

स्वर से स्वर मिला

दूर रहकर ही मिला या पास में आकर मिला 
मीत मन से मन मिला तू और स्वर से स्वर मिला 

आदमी की अस्मिता का प्रश्न है अब सामने 
हैं सभी हैरान पर अब तक कहाँ उत्तर मिला 

दौड़ता था धमनियों में खून जिसके नाम से 
अब उसी की धमनियों में सन्निपाती ज्वर  मिला 

जो बताता था दिशा को और दूरी को कभी 
राह में उखड़ा हुआ वह मील का पत्थर मिला 

सूचना तो यह मिली थी गाँव में बारिश हुई 
खेत इक सूखा मिला पर और इक बंजर मिला 

एक अरसे बाद लौटे जब शहर से गाँव में 
घर मिला फूटा हुआ टूटा हुआ छप्पर मिला 

हो गया लगता है उसके साथ कोई हादसा 
झाड़ियों में मधुमती के पाँव का जेवर मिला 

आ गई सैयाद के चक्कर में शायद फाख्ता 
खून के धब्बे मिले हैं और टूटा पर मिला 

देखता है थालियों में रोज भूखा आदमी 
विष मिला है सब्जियों में दाल में कंकर मिला 

खोजते फिरते थे मंदिर और मस्जिद में जिसे 
बंद कर आँखें निहारा तो वही अन्दर मिला 

हाथ 'भारद्वाज' सारे अपने अपने धो रहे 
बहती गंगा में जिसे जैसा जहाँ अवसर मिला 

चंद्रभान भारद्वाज 

Monday, March 19, 2012

देखिये

गुनगुना कर देखिये या मुस्करा कर देखिये
ज़िन्दगी के बोझ को हलका बना कर देखिये 

आपकी भाषा समझते हैं बहुत अच्छी तरह 
फूल-पत्तों को व्यथा अपनी सुना कर देखिये 

इक-न-इक दिन पूर्ण होगी आपकी मन- कामना 
अपने सच्चे मन से कोई प्रार्थना कर देखिये 

धूप में वह छाँह देगा ज़िन्दगी भर आपको 
घर के आँगन में कोई पौधा लगा कर देखिये 

पंख लग जायेंगे सहसा आपके हर स्वप्न को 
रेशमी आँचल का थोड़ा प्यार पाकर देखिये 

ओढ़ना बरसातियों का छतरियों का छोड़ कर
पहली बारिश में कभी नंगा नहा कर देखिये 

देखना आसान हो जायेगा आगे का सफ़र 
यार 'भारद्वाज' को अपना बना कर देखिये 

चंद्रभान भारद्वाज 

Thursday, March 8, 2012

बनती है

किसी दिल में कहीं जब प्यार की तस्वीर बनती है 
कभी सोनी कभी शीरी कभी इक हीर बनती है 

उतरती जब कोई औरत बचाने आबरू अपनी 
स्वयं हँसिया गँड़ासा तीर या शमशीर बनती है 

बनाता है पसीना फूल खुद हर एक काँटे को 
हथेली पर उगी गाँठों से खुद तकदीर बनती है 

न ताजो-तख्त से बनती न बनती सोने चाँदी से 
फकीरी ओढ़ने से प्यार की जागीर बनती है 

भरोसे भाग्य के कुछ भी नहीं होता है दुनिया में 
असंभव होता है संभव जहाँ तदबीर बनती है 

लम्हे लिखते हैं जिसको  गुनगुनाती हैं उसे  सदियाँ 
ग़ज़ल में पीर ढल कर  जब जगत की पीर बनती है 

रसों का स्वाद 'भारद्वाज' भूखे पेट से पूछो 
कि बासी रोटियों की कैसे मुँह में खीर बनती है 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, February 28, 2012

समझ बैठे

डगर में रजकणों को मील का पत्थर समझ बैठे 
टिके बैसाखियों पर जो उन्हें गिरवर समझ बैठे 

खरीदे  मंच  के  आगे  खरीदीं  तालियाँ  सारी
खरीदी भीड़ को ही आमजन का स्वर समझ बैठे 

नज़र के सामने फैला हुआ था दूर तक मरुथल 
मगर हम प्यास के मारे उसे निर्झर समझ बैठे 

न तो आकाश है उनका न धरती ही कहीं उनकी 
खुले फुटपाथ को वे लोग अपना घर समझ बैठे 

स्वयं ही मारकर पत्थर हरिक दर्पण को तोडा है 
बिना दर्पण वो अपना चेहरा सुंदर समझ बैठे 

किया है झिलमिलाती रोशनी ने इस कदर अंधा
चमकते काँच के टुकड़ों को हम गौहर समझ बैठे 

हुई  है  दूर  'भारद्वाज'  भूखे  पेट  से  रोटी
बड़े बाजार को पर हम प्रगति की दर समझ बैठे 

चंद्रभान भारद्वाज  

Wednesday, February 22, 2012

कातिल नहीं पाया


इक खून का कोई कहीं हासिल नहीं पाया 
चाकू नहीं पाया कभी कातिल नहीं पाया 

जो जुर्म में शामिल थे वे छूटे हुए बाहर 
जो कैद है वह जुर्म में शामिल नहीं पाया 

इंसान  तो  मजबूर  है  क़ानून  है  अंधा
जो वाद को अंजाम दे वह दिल नहीं पाया 

आया  हुआ  है रास्ते  के बीच  जो पत्थर 
चाहा हटाना पर जरा भी हिल नहीं पाया 

डस करअचानक हो गया है आँख से ओझल 
जिसमें छिपा है साँप का वह बिल नहीं पाया 

काँटों में फँस कर फट गया है रेशमी आँचल 
उलझा हुआ हर तार ऐसा सिल नहीं पाया 

हालात कैसे कर गया है बाग़ का मौसम 
सूखा नहीं पर फूल कोई खिल नहीं पाया  

बैठे  हुए  हैं  लोग  ऐसे  मंच  के   ऊपर  
जिनको दरी के भी कभी काबिल नहीं पाया 

कश्ती उतारी तो है 'भारद्वाज' सागर में 
कोई अभी तक राह या साहिल नहीं पाया 

चंद्रभान भारद्वाज