Saturday, November 28, 2009
Wednesday, November 18, 2009
ऊँगली उठाता है
बता कर कुछ न कुछ कमियाँ निगाहों से गिराता है;
ज़माना नेक नीयत पर भी अब ऊँगली उठाता है।
समझता ख़ुद के काले कारनामों को बहुत उजला,
हमारे साफ दामन को मगर दागी बताता है ।
किसी को पक्ष रखने का कोई मौका नहीं देता,
सबूतों के बिना हर फैसला अपना सुनाता हैं।
रही है पीठ पीछे बात करने की उसे आदत,
नज़र के सामने आते ही नज़रों को चुराता है।
कभी जब होश खोता है तनिक भी जोश में आकर,
ज़रा सी भूल का वह क़र्ज़ जीवन भर चुकाता है।
महज़ बोते रहे हम भावना के बीज ऊसर में,
न उनमे फूल ही आते न कोई फल ही आता है।
बदी तो याद रखता है यहाँ इंसान बरसों तक,
मगर नेकी को 'भारद्वाज' पल भर में भुलाता है।
चंद्रभान भारद्वाज
Saturday, November 7, 2009
अपनापन नहीं मिलता
न जिसके बीच हो दीवार वह आँगन नहीं मिलता;
कहीं अब ज़िन्दगी नज़रों में अपनापन नहीं मिलता।
जिसे हम ओढ़ कर कुछ देर अपने दुःख भुला देते,
बुना हो प्यार के धागों से वह दामन नहीं मिलता।
जहाँ जज्बात की इक आग हरदम जलती रहती थी,
दिलों में अब वो जज्बा वह दिवानापन नहीं मिलता।
खड़े हैं भीड़ में महसूस करते पर अकेलापन,
किसी से तन नहीं मिलता किसी से मन नहीं मिलता।
खरा उतरे सदा जो ज़िन्दगी की हर कसौटी पर,
तपा हो आग में वह प्यार का कुंदन नहीं मिलता।
बिता दी ज़िन्दगी सजने सँवरने की प्रतीक्षा में,
उमर को पर कभी पायल कभी कंगन नहीं मिलता।
स्वयं ही सीढियाँ पड़ती हैं चढ़नी नंगे पाओं से,
शिखर छूने को भाड़े का कोई वाहन नहीं मिलता।
किया है उम्र भर जिसने तिलक हर एक माथे का,
उसे अपने ही माथे के लिए चंदन नहीं मिलता।
कि जिसमें भीग 'भारद्वाज' तन अंगार बन जाता,
भरी बरसात में वह झूमता सावन नहीं मिलता।
चंद्रभान भारद्वाज
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