Tuesday, December 30, 2014

             उजाले क्या अँधेरे क्या

अवध की मस्त शामें क्या वनारस के सवेरे क्या 
अगर हों बंद आँखें तो उजाले क्या अँधेरे क्या 

दहक कर आग नफ़रत की जला जाती है बस्ती को 
उसे हिन्दू के डेरे क्या उसे मुस्लिम के डेरे क्या 

उगा है सूर्य बनकर जो चमकता ही है धरती पर 
उसे फिर तम के घेरे  क्या घने कुहरे के घेरे क्या 

रखा विश्वास की गठरी में जब संतोष के धन को 
तो फिर जीवन सफर में चोर डाकू या लुटेरे क्या 

किसी रिश्ते में अपने को कभी बाँधा नहीं जिसने 
समझता कैसे होते प्यार की गलियों के फेरे क्या 

गड़रिया ज़िन्दगी की भेड़ लेकर घर से निकला है 
तो बस्ती के बसेरे क्या तो जंगल के बसेरे क्या 

टिकी है नींव 'भारद्वाज' जब कच्चे धरातल पर 
महल सपनों के ढहने हैं वो तेरे क्या वो मेरे क्या 

चंद्रभान भारद्वाज  

Saturday, December 6, 2014

                     घबरा ही जाता है 

अचानक नब्ज़ बढ़ती है पसीना आ ही जाता है
 हरिक दिल प्यार में पहले-पहल  घबरा  ही जाता है 

सिखाती है बहुत अम्मा पढ़ाती है बहुत दादी 
नज़र के फेर में दिल फँस के धोखा खा ही  जाता है 

भरोसा टूटने लगता कदम भी डगमगा जाते 
मगर दिल ठान लेता है  तो मंज़िल पा ही जाता है 

न अपना होश रहता है न दुनिया की खबर कोई 
उलझ कर प्यार में गहरा नशा सा छा ही  जाता है 

डगर जब आगे बढ़ती है तो गलियाँ छूटतीं पीछे 
बिछुड़ता है सगा कोई तो रोना आ ही जाता है 

कड़ी संदेह की जब बीच में विश्वास के फँसती 
दिलों के बीच थोड़ा फासला गहरा ही जाता है 

सही सोचा सही देखा सही बोला सही जाना 
सही को भी मगर कोई गलत ठहरा ही जाता है 

अगर खतरे में औरत देखती है आबरू अपनी 
तो उसका हौसला फिर मौत से टकरा ही जाता है 

ठहरता रूप का सौंदर्य 'भारद्वाज'पल दो पल 
अगर ढलना शुरू होता है तो ढलता ही जाता है 

चंद्रभान भारद्वाज