Friday, September 26, 2014

                       मैं एक सागर हो गया

बन के पत्थर वो मिला तो मैं भी पत्थर हो गया
जब नदी बनकर मिला मैं एक सागर हो गया

है अजब संभावनाओं से भरी यह ज़िन्दगी
जो कभी सोचा नहीं था वो भी अक्सर हो गया

मेरे पैरों के तले की धरती उसने खोद दी
मेरा कद भी उसके कद के जब बराबर हो गया

पाँव में जब बेड़ियाँ थीं तब हमें धरती मिली
और जब बे-पर हुए हम अपना अम्बर हो गया

भाग्य माथे की लकीरों से नहीं बनता कभी
हाथ ने जैसा लिखा वैसा मुकद्दर हो गया

आँकती आई थी दुनिया अब तलक कमतर मुझे
वक़्त बदला तो मैं दुनिया से भी बढ़कर हो गया

एक अरसे से छिपा रक्खा था दिल के दर्द को
आँख की कोरें हुईं गीली उजागर हो गया

रोज ही करवट बदलता जा रहा है वक़्त अब
पिज्जा अपनी खीर पूड़ी से भी रुचिकर हो गया

नाम मेरा उसने जब अपनी कलाई पर लिखा
दिव्य 'भारद्वाज' का हर एक अक्षर हो गया

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 23, 2014

             हर किरदार की अपनी जगह
यार की अपनी जगह है प्यार की अपनी जगह
ज़िन्दगी में तय है हर किरदार की अपनी जगह

ज़िन्दगी खिलते गुलाबों की कँटीली डाल है
फूल की अपनी जगह है खार की अपनी जगह

आप हैं और सामने है वक़्त की बहती नदी
पार की अपनी जगह है धार की अपनी जगह

कुछ सुलग कर बुझ गए हैं कुछ अभी सुलगे हुए
राख की अपनी जगह अंगार की अपनी जगह

अपनी लघुता आपकी  गुरुता के  आगे कम नहीं
है सुई अपनी जगह तलवार की अपनी जगह

सींचने पड़ते हैं पौधों की तरह रिश्ते यहाँ
मान की अपनी जगह मनुहार की अपनी जगह

बाँटने जब भी उजाला आई सूरज की किरण
हर गली में ही मिली अँधियार की अपनी जगह

चूड़ियाँ इक शौक भी है चूड़ियाँ इक रस्म भी
लोक रस्मों में बनी मनिहार की अपनी जगह

बल प्रदर्शन जाम धरनों के भरे माहौल में
भीड़ की अपनी है थानेदार की अपनी जगह

नेट हो स्मार्ट मोबाइल या टी वी सेट हो
चैनलों की भीड़ में अखबार की अपनी जगह

जो प्रतीक्षारत रहा है उम्र भर प्रिय के लिए
मन में 'भारद्वाज' है उस द्वार की अपनी जगह

चंद्रभान भारद्वाज

Thursday, September 11, 2014



                    ग़ज़ल : नहीं मिलते 


उमर की डाल पर खुशियों के मीठे फल नहीं मिलते
अगर इस ज़िंदगी में प्यार के दो पल नहीं मिलते

स्वयं के शव को कंधों पर उमर भर ढोना पड़ता है
समय के यक्ष प्रश्नों के सहज ही हल नहीं मिलते 

जड़ों को खाद पानी से भले ही सींच ले कोई
मगर मौसम के मारे पेड़ को डंठल नहीं मिलते

दिये को तेल बाती के ही दम पर जलना पड़ता है
हवाओं की सलामी से उसे संबल नहीं मिलते

लगा कर कान हर अवसर की दस्तक सुननी पड़ती है 
जो अवसर द्वार से लौटे वो वापिस कल नहीं मिलते

जिन्हें आदत है अपनी प्यास अधरों पे सजाने की
उन्हें बरसात के मौसम में भी बादल नहीं मिलते

उड़ानें छोड़ कर अपनी जो पिंजड़ों के हुए आदी
कभी ऐसे परिंदों को खुले जंगल नहीं मिलते

धरा से तोड़ कर रिश्ता हवा में उड़ रहे हैं जो
उतरते वक़्त उन पाँवों को फिर स्थल नहीं मिलते

पुरानी तोड़ कर लीकें बनाती है नई राहें 
सफलता को कहीं भी रास्ते समतल नहीं मिलते

प्रणय इतिहास 'भारद्वाज' पूरा ही बदल जाता
मेरे नयनों से यदि उसके नयन चंचल नहीं मिलते 

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 2, 2014

 राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई 

राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
 जाये तो जाये कहाँ वक़्त का मारा कोई

उम्र धुँधुआती रही गीली सी लकड़ी की तरह
पर न चिनगारी बनी है न अँगारा कोई

तैरती रहती तो लग जाती किनारे पे कहीं
डूबती नाव को मिलता न किनारा कोई

प्यास अधरों की बुझाते तो बुझाते कैसे
या तो था रेत कि तालाब था खारा कोई

जिन पतंगों की कटी डोर फँसी काँटों में
उनको आकाश न मिलता है दुबारा कोई

छोड़ कुछ देर चमक खोया अँधेरों  में कहीं
जब भी आकाश से टूटा है सितारा कोई

शांत माहौल में होती है अचानक हलचल
द्वार को करती है जब खिड़की इशारा कोई

हमने खुशियों का खजाना ही लुटाया था यहाँ
पर हमें दे के गया गम का पिटारा कोई

जब न पूरा है सफर और न थका है वो अभी
क्यों तलाशेगा 'भरद्वाज' किनारा कोई