Wednesday, July 21, 2010

हुनर जानते हैं

समय  के   गुजरते   प्रहर  जानते  हैं 
कि हम ज़िन्दगी  का हुनर जानते हैं

जरूरत नहीं मील के पत्थरों की
हमारे कदम हर डगर जानते हैं

दिशा जानते हैं दशा जानते हैं
हवा बह रही है किधर जानते हैं

खड़ी बीच में एक दीवार ऊँची
उधर की मगर हर खबर जानते हैं 

सदा  फूस  के   ढेर  को  ढूँढती  हैं 
कुटिल चिनगियों की नज़र जानते हैं 

बढ़ी है उमर और हर घूँट पीकर 
दिया है समय ने ज़हर जानते हैं 

पड़े हैं कदम जिस जगह पर हमारे 
मने नित्य उत्सव उधर जानते हैं 

कथा सिलवटों की व्यथा करवटों की 
कहाँ क्या हुआ रात भर जानते हैं 

निभाया बहुत ज़िन्दगी की ग़ज़ल को 
रही कुछ न कुछ पर कसर जानते हैं 

 चंद्रभान भारद्वाज 

Wednesday, July 7, 2010

टूट जाती है

समय की मार से अल्हड़ जवानी टूट जाती है  
 लदा हो बोझ ज्यादा तो कमानी टूट जाती है 

ठहरने ही नहीं देती किसी को वेग में अपने 
नदी मुड़ती   जहाँ उसकी रवानी टूट जाती है

समय के वक्ष पर करवट बदलती जब नई धारा 
बनी थी लीक जो सदियों पुरानी टूट जाती है 

कसौटी पर परखते वक़्त बस इतना समझ लेना 
तनिक शक पर मुहब्बत की कहानी टूट जाती है 

अगर टूटा कभी कोई कुँवारी आँख का सपना 
कुँवारे प्यार की हर इक निशानी टूट जाती है 

महकती है भले ही रात भर प्रिय की प्रतीक्षा में 
सवेरे तक मगर वह रातरानी टूट जाती है 

हदों को तोड़ आती जब सड़क पर बात आँगन की 
बनी दीवार ऊँची खानदानी टूट जाती है 

अचानक मौत अपना खेल दिखला कर चली जाती 
सड़क पर जब नज़र की सावधानी टूट जाती है 

उछलना कूदना अच्छा न 'भारद्वाज' इस वय में 
लचक कर रीढ़ की हड्डी पुरानी टूट जाती है 

चंद्रभान भारद्वाज