इक द्वार भी तो हो
कहीं दीवार में इक द्वार भी तो हो
कहीं दीवार में इक द्वार भी तो हो
घृणा के बीच थोड़ा प्यार भी तो हो
कहाँ रोएं किसी कंधे पे सिर रख कर
सहे जो बोझ ऐसा यार भी तो हो
नहीं उतरेगी आँगन में कोई चिड़िया
उसे दानों पे इक ऐतवार भी तो हो
करे फ़रियाद भी कोई कहाँ किससे
सुने जो अर्ज वह सरकार भी तो हो
सजा लेते पलक पर हम नए सपने
मगर सपनों में कोई सार भी तो हो
किले केवल हवाओं में नहीं बनते
कहीं धरती पे इक आधार भी तो हो
सभी बैठे हुए हैं नाव को लेकर
किसी के हाथ में पतवार भी तो हो
इशारों से कि नज़रों से कि अधरों से
किसी से प्यार का इज़हार भी तो हो
लगें पकवान 'भारद्वाज' तब अच्छे
दिवाली ईद का त्यौहार भी तो हो
चंद्रभान भरद्वाज
1 comment:
घृणा के बीच प्यार भी तो हो !
यही हो !
अच्छी ग़ज़ल !
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