Friday, September 28, 2012

       इक द्वार भी तो हो 
कहीं दीवार में इक द्वार भी तो हो 
घृणा के बीच थोड़ा प्यार भी तो हो 

कहाँ रोएं किसी कंधे पे सिर रख कर 
सहे जो बोझ ऐसा यार भी तो हो 

नहीं उतरेगी आँगन में कोई चिड़िया 
उसे दानों पे इक ऐतवार भी तो हो 

करे फ़रियाद भी कोई कहाँ किससे
सुने जो अर्ज वह सरकार भी तो हो 

सजा लेते पलक पर हम नए सपने 
मगर सपनों में कोई सार भी तो हो 

किले केवल हवाओं में नहीं बनते 
कहीं धरती पे इक आधार भी तो हो 

सभी बैठे हुए हैं नाव को लेकर 
किसी के हाथ में पतवार भी तो हो 

इशारों से कि नज़रों से कि अधरों से 
किसी से प्यार का इज़हार भी तो हो 

लगें पकवान 'भारद्वाज' तब अच्छे 
दिवाली ईद का त्यौहार भी तो हो 

चंद्रभान भरद्वाज




1 comment:

वाणी गीत said...

घृणा के बीच प्यार भी तो हो !
यही हो !
अच्छी ग़ज़ल !