कभी सीधी सरल सी राह टेढ़ी राह लगती है
कि जैसे बात सच कोई महज अफवाह लगती है
शरणस्थल बनी है डाकुओं की और चोरों की
इमारत वो जो बाहर से इबादतगाह लगती है
समझते आ रहे थे एक मंदिर लोग संसद को
मगर वह आज नेताओं का चारागाह लगती है
नहीं कुछ वक़्त लगता है उसे बनने में इक खंडहर
महल को जब कभी इक झोंपड़ी की आह लगती है
चुना है वक़्त ने उसको हमारे गाँव का मुखिया
कि जिसकी हाजिरी थाने में हर सप्ताह लगती है
उदासी से भरी है आजकल हर ज़िन्दगी इतनी
न कुछ उत्साह लगता है न कोई चाह लगती है
न जाने कर दिया है उसने 'भारद्वाज' क्या जादू
है कोसों दूर नज़रों से मगर हमराह लगती है
चंद्रभान भारद्वाज
1 comment:
अच्छे शेर...उम्दा ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई...
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