है ज़हर पर मानकर अमृत उसे पीना यहाँ;
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की ही तरह जीना यहाँ।
उन हवाओं को वसीयत सौंप दी है वक्त ने,
जिनने खुलकर साँस लेने का भी हक छीना यहाँ।
आँख में रखना नमी कुछ और होठों पर हँसी,
क्या पता पत्थर बने कब फूल सा सीना यहाँ।
हो गया बेहद कठिन पहचानना सच झूठ को,
बीच दोनों के रहा परदा बहुत झीना यहाँ।
पाँव ने कुचला उसे खुद और घायल कर दिया,
राह के कांटों को जिस उँगली ने कल बीना यहाँ।
इस तरफ तो हादसे हैं उस तरफ वीरानियाँ,
कर दिया मुश्किल बहुत इंसान का जीना यहाँ।
एक चेहरे पर लगे हैं अब हज़ारों चेहरे,
देख 'भारद्वाज' खुद भ्रम में है आईना यहाँ।
चंद्रभान भारद्वाज
8 comments:
बेहतरीन रचना , सुंदर भाव
behad sundar rachna........sach kaha .
बहुत ही उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।
एक चेहरे पर लगे हैं अब हज़ारों चेहरे,
देख 'भारद्वाज' खुद भ्रम में है आईना यहाँ।
-बहुत उम्दा!
अच्छी ग़ज़ल गुरुवर।
"उन हवाओं को वसीयत सौंप दी है वक्त ने,
जिनने खुलकर साँस लेने का भी हक छीना यहाँ"
ये शेर लाजवाब लगा!
श्रद्देय भारद्वाज जी,
बहुत कीमती शेर कहा है-
आँख में रखना नमी कुछ और होठों पर हँसी,
क्या पता पत्थर बने कब फूल सा सीना यहाँ।
और ये दो मिसरे, लाजवाब, कंठस्थ हो गये-
हो गया बेहद कठिन पहचानना सच झूठ को,
बीच दोनों के रहा परदा बहुत झीना यहाँ।
एक अर्ज़ है आपसे,
कहीं मकता पोस्ट करने में कोई गड़बड़ तो नहीं हो गयी?
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Bhai Shahid MIrza ji namaskar.
ghazal ka makta poora hai.Dekhen-
'Dekh bhardwaaj khud bhram men hai aaeena yahan' = dekh=21 bhardwaaj=2221 khud=2 bhram=2 men=2 hai=1 aaeena =222 yahan=12 Is tarah se bahar poori ho jati hai =2122 2122 2122 212. Asha hai apko tasalli ho gai hog.
Chandrabhan Bhardwaj
मैं भला क्या कह सकती हूँ अभी तो गज़ल की ए बी सी सीख रही हूँ। लाजवाब लिखते हैं आप । नये साल की शुभकामनायें
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