ग़ज़लगो श्री. चंद्रभान भारद्वाज
[संदर्भ : 'पगडंडियाँ']
— समीक्षक : डा. महेंद्रभटनागर
’पगडंडियाँ’ श्री चंद्रभानु भारद्वाज की ग़ज़लों और गीतों का संग्रह है। ’पगडंडियाँ’ कवि की भावधारा और अभिव्यक्ति प्रणाली को भली-भाँति स्पष्ट करती है। कवि में अनुभूति की सघनता है। अपना दर्द बयान करने का अपना अन्दाज़ है। कवि-कौशल के प्रति भी वह सजग है। पर, कवि की सबसे बड़ी शक्ति है — प्रांजलता। अतः उसका काव्य सम्प्रेषणीय है। ‘पगडंडियाँ’ कविता के आकर्षण और प्रभाव से भरपूर है। जहाँ तक गीतों का संबंध है, हिन्दी-पाठक को इतनी नवीनता दृग्गोचर नहीं होती, पर संग्रह की ग़ज़लें अपनी प्रभविष्णुता में बेजोड़ हैं। उनसे पाठकों का आवर्जन निःसंदेह खूब होता है। ग़ज़लें उर्दू की पद्धति पर होते हुए भी उसकी रंगत से मुक्त हैं। वे कोई नागरी लिपि में लिखी उर्दू-ग़ज़लें नहीं हैं। यही कारण है, ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक पर अपना सद्यः प्रभाव अंकित करती हैं। संग्रह में सर्वत्र आभिजात्य और शालीनता परिव्याप्त है — कथ्य और कथन-भंगिमा में। ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक को अभिभूत करती हैं। लगता है। कविता वापस आ रही है। अपने नये अन्दाज़ में, नये परिधान में।
‘पगडंडियाँ का मूल स्वर है — दर्द। कवि के जीवन में वेदना का भाग अधिक है। वेदनानुभूतियों से उसका जीवन-सिक्त है। निःसंदेह, वेदना-बोझिल जीवन जीना कठिन होता है। पर, कवि ने अपनी जीवन-वेदना से अपने गीतों का अभिषेक किया है। इस दर्द ने उसकी भावनाओं-संवेदनाओं को तीव्रता और गहराई प्रदान की है :
.
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये !
दर्द से अनजान पहले थे मगर
दर्द-हम पर्याय होकर रह गये !
.
और जब दर्द से पहचान हो जाती है — जब दर्द जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है— तब गीतों की सर्जना कितनी सहज हो जाती है :
.
हो गयी है दर्द से पहचान मेरे गीत की
वेदनाएँ बन गयीं मेहमान मेरे गीत की !
द्वार पर आकर अगर दस्तक न देता दर्द तो
देहरी रहती सदा सुनसान मेरे गीत की !
.
जीवन की विषमताओं, प्रतिकूलताओं और विभीषिकाओं को हँस-हँस कर झेल लेने का यही रहस्य है। अतृप्त अभिलाषाओं और निपट अकेलेपन की घुटन को सह लेने की क्षमता जीवन की वास्तविकता का बोध ही नहीं कराती, उसे अर्थवान बनाने की प्रेरणा भी देती है :
.
सपने के शीश-महल फिर चकनाचूर हुए
जब साँझ लगी घिरने अपने साए भी दूर हुए !
अब तो आदत बन गयी दर्द हँस-हँस कर पीने की
पहले-पहले पीने में कूछ बेचैन ज़रूर हुए !
.
इस दर्द की बुनियाद कहाँ है ? कहना न होगा, इसके सूत्र प्रेम की भूमि में गड़े हैं। अवस्था-विशेष में प्रेयसी जीवन-सार्थकता की प्रतीक बन जाती है। उसको न पा सकना जीवन को निस्सार बना देता है। कल्पनाओं के सारे गगन-चुम्बी भवन क्षण भर में ढह जाते हैं :
.
प्यार के पुख़्ता धरालत पर बनाये थे महल
पर बिना आधार के मीनार से ढहते रहे,
हो गयी बेहद पराई-सी छुअन हर बाँह की
कल तलक जिसको बड़े एतबार से गहते रहे !
.
ऐसा क्यों होता है ? इसकी पृष्ठभूमि में सामाजिक यथार्थ की कठोर चट्टाने हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इच्छानुसार जीवन-राह का निर्माण सदैव सम्भव नहीं :
.
जानता हूँ मैं असम्भव लौटना मेरे लिए
संग चलना इस समय तेरे लिए मुमकिन नहीं,
मोड़ना मन के मुताबिक है नहीं इतना सरल
ज़िन्दगी है ज़िन्दगी कोई कथा प्रहसन नहीं !
.
और इसी स्थल पर ज़माने से टक्कर लेनी पड़ती है :
.
यार हमकों सिर्फ़ इतनी बात का डर है
हर नज़र पत्थर लिए यह काँच का घर है !
.
ज़माने का विष पीकर ज़िन्दगी उठती-गिरती रहती है :
.
थे यहाँ मधुकलश सारे विष भरे
असलियत मालूम हुई जब पी लिए,
देह पर तो लग गये टाँके मगर
रह गये सब घाव लेकिन अनसिये !
.
और अतं में जब हिसाब किया जाता है तो शेष बचता है — दर्द :
.
जीवन के समीकरण
जब किये सरल
सब जोड़ घटा कर
बचा दर्द केवल !
.
और इस दर्द का — आँसुओं का — अनुवाद करने में कवि सिद्ध-हस्त है। उसके जीवन की सभी पगडंडियाँ वेदना की गिट्टियों से बनी हैं। किन्तु इन पगडंडियों से वह रोकर नहीं गुज़रा; गाकर गुज़रा है:
.
डूब गयी इसलिए दर्द में
पूरी रामकहानी मेरी
आँसू ने भूमिका और
पीड़ा ने उपसंहार लिखा है !
.
‘पंगडडियाँ' के कवि की सबसे बड़ी शक्ति उसके कथन में निहित है। कथ्य में एकांगिता ज़रूर है, पर अभिव्यक्ति में वैविध्य और ताज़गी है। जीवन-स्थितियों को नयी-नयी उपमाओं से मुखर किया गया है, यथा —
1. तन बस्तर
मन हुआ झाबुआ
सपने भील हुए
भोली वन-कन्याओं सी
लुट गयी अपेक्षाएँ
‘घोटुल’ की दीवारों में
घुट गयी प्रतीक्षाएँ।
.
2. ठहर जातीं उलझकर ये निगाहें इस तरह अक्सर
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे,
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गयीं सरगर्मियाँ इतनी
चला आया बड़ा हाक़िम किसी तहसील में जैसे।
चुराकर वक़्त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे !
.
वैषम्य-कौशल से भी जीवन के अनेक सत्य उजागर हुए हैं :
.
1. बढ़ती चली गयी उम्र हर एक घूँट पर
हमने पिया है विष भी इतने कमाल से !
2. वक़्त ने फैला दिये हैं पाँव मीलों तक
पास अपने सिर्फ़ दो बालिश्त चादर है !
.
प्रेम की अनुभूतियों को ग़ज़ल का परिधान पहनाने में कवि अप्रतिम है। एक-एक पंक्ति संतुलित और पैनी है। सम्पूर्ण ‘पगडंडियाँ’ काव्य-रस से आप्लावित है।
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[संदर्भ : 'पगडंडियाँ']
— समीक्षक : डा. महेंद्रभटनागर
’पगडंडियाँ’ श्री चंद्रभानु भारद्वाज की ग़ज़लों और गीतों का संग्रह है। ’पगडंडियाँ’ कवि की भावधारा और अभिव्यक्ति प्रणाली को भली-भाँति स्पष्ट करती है। कवि में अनुभूति की सघनता है। अपना दर्द बयान करने का अपना अन्दाज़ है। कवि-कौशल के प्रति भी वह सजग है। पर, कवि की सबसे बड़ी शक्ति है — प्रांजलता। अतः उसका काव्य सम्प्रेषणीय है। ‘पगडंडियाँ’ कविता के आकर्षण और प्रभाव से भरपूर है। जहाँ तक गीतों का संबंध है, हिन्दी-पाठक को इतनी नवीनता दृग्गोचर नहीं होती, पर संग्रह की ग़ज़लें अपनी प्रभविष्णुता में बेजोड़ हैं। उनसे पाठकों का आवर्जन निःसंदेह खूब होता है। ग़ज़लें उर्दू की पद्धति पर होते हुए भी उसकी रंगत से मुक्त हैं। वे कोई नागरी लिपि में लिखी उर्दू-ग़ज़लें नहीं हैं। यही कारण है, ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक पर अपना सद्यः प्रभाव अंकित करती हैं। संग्रह में सर्वत्र आभिजात्य और शालीनता परिव्याप्त है — कथ्य और कथन-भंगिमा में। ‘पगडंडियाँ’ की ग़ज़लें पाठक को अभिभूत करती हैं। लगता है। कविता वापस आ रही है। अपने नये अन्दाज़ में, नये परिधान में।
‘पगडंडियाँ का मूल स्वर है — दर्द। कवि के जीवन में वेदना का भाग अधिक है। वेदनानुभूतियों से उसका जीवन-सिक्त है। निःसंदेह, वेदना-बोझिल जीवन जीना कठिन होता है। पर, कवि ने अपनी जीवन-वेदना से अपने गीतों का अभिषेक किया है। इस दर्द ने उसकी भावनाओं-संवेदनाओं को तीव्रता और गहराई प्रदान की है :
.
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये !
दर्द से अनजान पहले थे मगर
दर्द-हम पर्याय होकर रह गये !
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और जब दर्द से पहचान हो जाती है — जब दर्द जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है— तब गीतों की सर्जना कितनी सहज हो जाती है :
.
हो गयी है दर्द से पहचान मेरे गीत की
वेदनाएँ बन गयीं मेहमान मेरे गीत की !
द्वार पर आकर अगर दस्तक न देता दर्द तो
देहरी रहती सदा सुनसान मेरे गीत की !
.
जीवन की विषमताओं, प्रतिकूलताओं और विभीषिकाओं को हँस-हँस कर झेल लेने का यही रहस्य है। अतृप्त अभिलाषाओं और निपट अकेलेपन की घुटन को सह लेने की क्षमता जीवन की वास्तविकता का बोध ही नहीं कराती, उसे अर्थवान बनाने की प्रेरणा भी देती है :
.
सपने के शीश-महल फिर चकनाचूर हुए
जब साँझ लगी घिरने अपने साए भी दूर हुए !
अब तो आदत बन गयी दर्द हँस-हँस कर पीने की
पहले-पहले पीने में कूछ बेचैन ज़रूर हुए !
.
इस दर्द की बुनियाद कहाँ है ? कहना न होगा, इसके सूत्र प्रेम की भूमि में गड़े हैं। अवस्था-विशेष में प्रेयसी जीवन-सार्थकता की प्रतीक बन जाती है। उसको न पा सकना जीवन को निस्सार बना देता है। कल्पनाओं के सारे गगन-चुम्बी भवन क्षण भर में ढह जाते हैं :
.
प्यार के पुख़्ता धरालत पर बनाये थे महल
पर बिना आधार के मीनार से ढहते रहे,
हो गयी बेहद पराई-सी छुअन हर बाँह की
कल तलक जिसको बड़े एतबार से गहते रहे !
.
ऐसा क्यों होता है ? इसकी पृष्ठभूमि में सामाजिक यथार्थ की कठोर चट्टाने हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इच्छानुसार जीवन-राह का निर्माण सदैव सम्भव नहीं :
.
जानता हूँ मैं असम्भव लौटना मेरे लिए
संग चलना इस समय तेरे लिए मुमकिन नहीं,
मोड़ना मन के मुताबिक है नहीं इतना सरल
ज़िन्दगी है ज़िन्दगी कोई कथा प्रहसन नहीं !
.
और इसी स्थल पर ज़माने से टक्कर लेनी पड़ती है :
.
यार हमकों सिर्फ़ इतनी बात का डर है
हर नज़र पत्थर लिए यह काँच का घर है !
.
ज़माने का विष पीकर ज़िन्दगी उठती-गिरती रहती है :
.
थे यहाँ मधुकलश सारे विष भरे
असलियत मालूम हुई जब पी लिए,
देह पर तो लग गये टाँके मगर
रह गये सब घाव लेकिन अनसिये !
.
और अतं में जब हिसाब किया जाता है तो शेष बचता है — दर्द :
.
जीवन के समीकरण
जब किये सरल
सब जोड़ घटा कर
बचा दर्द केवल !
.
और इस दर्द का — आँसुओं का — अनुवाद करने में कवि सिद्ध-हस्त है। उसके जीवन की सभी पगडंडियाँ वेदना की गिट्टियों से बनी हैं। किन्तु इन पगडंडियों से वह रोकर नहीं गुज़रा; गाकर गुज़रा है:
.
डूब गयी इसलिए दर्द में
पूरी रामकहानी मेरी
आँसू ने भूमिका और
पीड़ा ने उपसंहार लिखा है !
.
‘पंगडडियाँ' के कवि की सबसे बड़ी शक्ति उसके कथन में निहित है। कथ्य में एकांगिता ज़रूर है, पर अभिव्यक्ति में वैविध्य और ताज़गी है। जीवन-स्थितियों को नयी-नयी उपमाओं से मुखर किया गया है, यथा —
1. तन बस्तर
मन हुआ झाबुआ
सपने भील हुए
भोली वन-कन्याओं सी
लुट गयी अपेक्षाएँ
‘घोटुल’ की दीवारों में
घुट गयी प्रतीक्षाएँ।
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2. ठहर जातीं उलझकर ये निगाहें इस तरह अक्सर
फँसा हो छोर आँचल का पटे की कील में जैसे,
अचानक ज़िन्दगी में बढ़ गयीं सरगर्मियाँ इतनी
चला आया बड़ा हाक़िम किसी तहसील में जैसे।
चुराकर वक़्त से दो पल पुरानी याद दुहरा ली
मना ली हो दिवाली एक मुट्ठी खील में जैसे !
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वैषम्य-कौशल से भी जीवन के अनेक सत्य उजागर हुए हैं :
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1. बढ़ती चली गयी उम्र हर एक घूँट पर
हमने पिया है विष भी इतने कमाल से !
2. वक़्त ने फैला दिये हैं पाँव मीलों तक
पास अपने सिर्फ़ दो बालिश्त चादर है !
.
प्रेम की अनुभूतियों को ग़ज़ल का परिधान पहनाने में कवि अप्रतिम है। एक-एक पंक्ति संतुलित और पैनी है। सम्पूर्ण ‘पगडंडियाँ’ काव्य-रस से आप्लावित है।
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3 comments:
’पगडंडियाँ’ श्री चंद्रभानु भारद्वाज की ग़ज़लों और गीतों का संग्रह है..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
चंद्रभान जी की गज़लों को तो पहले ही पत्रिकाओं और यहाँ ब्लौग पर पढ़ कर हम मुरीद हो चुके हैं....शेष महेंद्र भटनागर जी के शब्दों ने सोने पे सुहागा का काम किया है
kuch aage kahane se pahale yahi kahunga ke chandrabhaan ji ke lekhani ko salaam... shayad aur aage kuch kahane ki sthiti me nahi hun...
arsh
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