Thursday, March 8, 2012

बनती है

किसी दिल में कहीं जब प्यार की तस्वीर बनती है 
कभी सोनी कभी शीरी कभी इक हीर बनती है 

उतरती जब कोई औरत बचाने आबरू अपनी 
स्वयं हँसिया गँड़ासा तीर या शमशीर बनती है 

बनाता है पसीना फूल खुद हर एक काँटे को 
हथेली पर उगी गाँठों से खुद तकदीर बनती है 

न ताजो-तख्त से बनती न बनती सोने चाँदी से 
फकीरी ओढ़ने से प्यार की जागीर बनती है 

भरोसे भाग्य के कुछ भी नहीं होता है दुनिया में 
असंभव होता है संभव जहाँ तदबीर बनती है 

लम्हे लिखते हैं जिसको  गुनगुनाती हैं उसे  सदियाँ 
ग़ज़ल में पीर ढल कर  जब जगत की पीर बनती है 

रसों का स्वाद 'भारद्वाज' भूखे पेट से पूछो 
कि बासी रोटियों की कैसे मुँह में खीर बनती है 

चंद्रभान भारद्वाज 

6 comments:

Aditya said...

//बनाता है पसीना फूल खुद हर एक काँटे को
हथेली पर उगी गाँठों से खुद तकदीर बनती है
//फकीरी ओढ़ने से प्यार की जागीर बनती है
//कि बासी रोटियों की कैसे मुँह में खीर बनती है


behtareen ghazal sirji..
mazaa aagayaa :)

palchhin-aditya.blogspot.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत गजल ...

virendra sharma said...

सशक्त प्रस्तुति . शानदार ग़ज़ल .

chandrabhan bhardwaj said...

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक जी
आपने मेरे ब्लॉग पर आकर मेरी ग़ज़ल को
चर्चा मंच में शामिल किया इसके लिए आपका
आभारी हूँ आपने इसे सराहा मैं समझता हूँ
मेरा लेखन सार्थक हो गया. धन्यवाद.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

शानदार ग़ज़ल...
सादर बधाई.

Shekhar Suman said...

bahut khoob gazal hai sir... jaane kaise door tha abhi tak is blog se....