किसी दिल में कहीं जब प्यार की तस्वीर बनती है
कभी सोनी कभी शीरी कभी इक हीर बनती है
उतरती जब कोई औरत बचाने आबरू अपनी
स्वयं हँसिया गँड़ासा तीर या शमशीर बनती है
बनाता है पसीना फूल खुद हर एक काँटे को
हथेली पर उगी गाँठों से खुद तकदीर बनती है
न ताजो-तख्त से बनती न बनती सोने चाँदी से
फकीरी ओढ़ने से प्यार की जागीर बनती है
भरोसे भाग्य के कुछ भी नहीं होता है दुनिया में
असंभव होता है संभव जहाँ तदबीर बनती है
लम्हे लिखते हैं जिसको गुनगुनाती हैं उसे सदियाँ
ग़ज़ल में पीर ढल कर जब जगत की पीर बनती है
रसों का स्वाद 'भारद्वाज' भूखे पेट से पूछो
कि बासी रोटियों की कैसे मुँह में खीर बनती है
चंद्रभान भारद्वाज
6 comments:
//बनाता है पसीना फूल खुद हर एक काँटे को
हथेली पर उगी गाँठों से खुद तकदीर बनती है
//फकीरी ओढ़ने से प्यार की जागीर बनती है
//कि बासी रोटियों की कैसे मुँह में खीर बनती है
behtareen ghazal sirji..
mazaa aagayaa :)
palchhin-aditya.blogspot.com
बहुत खूबसूरत गजल ...
सशक्त प्रस्तुति . शानदार ग़ज़ल .
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक जी
आपने मेरे ब्लॉग पर आकर मेरी ग़ज़ल को
चर्चा मंच में शामिल किया इसके लिए आपका
आभारी हूँ आपने इसे सराहा मैं समझता हूँ
मेरा लेखन सार्थक हो गया. धन्यवाद.
शानदार ग़ज़ल...
सादर बधाई.
bahut khoob gazal hai sir... jaane kaise door tha abhi tak is blog se....
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