Tuesday, September 2, 2014

 राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई 

राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
 जाये तो जाये कहाँ वक़्त का मारा कोई

उम्र धुँधुआती रही गीली सी लकड़ी की तरह
पर न चिनगारी बनी है न अँगारा कोई

तैरती रहती तो लग जाती किनारे पे कहीं
डूबती नाव को मिलता न किनारा कोई

प्यास अधरों की बुझाते तो बुझाते कैसे
या तो था रेत कि तालाब था खारा कोई

जिन पतंगों की कटी डोर फँसी काँटों में
उनको आकाश न मिलता है दुबारा कोई

छोड़ कुछ देर चमक खोया अँधेरों  में कहीं
जब भी आकाश से टूटा है सितारा कोई

शांत माहौल में होती है अचानक हलचल
द्वार को करती है जब खिड़की इशारा कोई

हमने खुशियों का खजाना ही लुटाया था यहाँ
पर हमें दे के गया गम का पिटारा कोई

जब न पूरा है सफर और न थका है वो अभी
क्यों तलाशेगा 'भरद्वाज' किनारा कोई

No comments: