Thursday, September 11, 2014



                    ग़ज़ल : नहीं मिलते 


उमर की डाल पर खुशियों के मीठे फल नहीं मिलते
अगर इस ज़िंदगी में प्यार के दो पल नहीं मिलते

स्वयं के शव को कंधों पर उमर भर ढोना पड़ता है
समय के यक्ष प्रश्नों के सहज ही हल नहीं मिलते 

जड़ों को खाद पानी से भले ही सींच ले कोई
मगर मौसम के मारे पेड़ को डंठल नहीं मिलते

दिये को तेल बाती के ही दम पर जलना पड़ता है
हवाओं की सलामी से उसे संबल नहीं मिलते

लगा कर कान हर अवसर की दस्तक सुननी पड़ती है 
जो अवसर द्वार से लौटे वो वापिस कल नहीं मिलते

जिन्हें आदत है अपनी प्यास अधरों पे सजाने की
उन्हें बरसात के मौसम में भी बादल नहीं मिलते

उड़ानें छोड़ कर अपनी जो पिंजड़ों के हुए आदी
कभी ऐसे परिंदों को खुले जंगल नहीं मिलते

धरा से तोड़ कर रिश्ता हवा में उड़ रहे हैं जो
उतरते वक़्त उन पाँवों को फिर स्थल नहीं मिलते

पुरानी तोड़ कर लीकें बनाती है नई राहें 
सफलता को कहीं भी रास्ते समतल नहीं मिलते

प्रणय इतिहास 'भारद्वाज' पूरा ही बदल जाता
मेरे नयनों से यदि उसके नयन चंचल नहीं मिलते 

चंद्रभान भारद्वाज

1 comment:

वाणी गीत said...

दीपक के जलने को तेल और बाती ही चाहिए , हवाएँ नहीं !
मनुष्य का स्वयं अपना संघर्ष ही उसे सफल बनाता है ! सटीक बिम्ब का प्रयोग !
अच्छी ग़ज़ल !