Sunday, February 6, 2011

कोई नहीं दिखता

बबूलों के वनों में गुलमोहर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे ऐसा शजर कोई नहीं दिखता

भटकती ही रही है ज़िन्दगी इस दर से उस दर तक
जिसे चाहत रही अपनी वो दर कोई नहीं दिखता

चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
खड़े हैं बस अकेले हम बशर  कोई नहीं दिखता

रहा आवाज़ का धोखा कि धोखा है निगाहों का
जिधर आवाज़ आती है उधर कोई नहीं दिखता

दिया बनकर जली है उम्र सारी इक प्रतीक्षा में
चुकी बाती बुझा दीया मगर कोई नहीं दिखता

कहीं थे राह में रोड़े कहीं थी  पाँव में बेडी
मगर अपने इरादों पर असर कोई नहीं दिखता

यहाँ कुछ लोग 'भारद्वाज' लिखने में लगे गज़लें
गज़लगोई का पर उनमें हुनर कोई नहीं दिखता

चंद्रभान भारद्वाज

4 comments:

ZEAL said...

चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
खड़े हैं बस अकेले हम बसर कोई नहीं दिखता

बेहतरीन अभिव्यक्ति !

.

वीनस केसरी said...

यहाँ कुछ लोग 'भारद्वाज' लिखने में लगे गज़लें
गज़लगोई का पर उनमें हुनर कोई नहीं दिखता

जय हो :)

एक शेर आपको समर्पित करता हूँ

सब अपने मुन्तज़र हैं सब अधूरेपन के मारे हैं
जो कह दे 'मैं मुकम्मल हूँ' बशर कोई नहीं दिखता

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीय काकाश्री चंद्रभान जी भारद्वाज
प्रणाम !

मेरी पसंद की बहर में शानदार रवां-दवां ग़ज़ल के लिए आभार !

कमाल के मतले से शुरू ग़ज़ल का हर शे'र एक एक से बढ़कर है
बबूलों के वनों में गुलमोहर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे ऐसा शजर कोई नहीं दिखता

थोथे स्वघोषित नामधारी बेशक कई हैं :)

कहीं थे राह में रोड़े कहीं थी पाँव में बेडी
मगर अपने इरादों पर असर कोई नहीं दिखता

ज़िंदादिली की नई अभिव्यक्ति है आपका यह शे'र … बहुत ख़ूब !

हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

'साहिल' said...

बबूलों के वनों में गुलमोहर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे ऐसा शजर कोई नहीं दिखता

खूबसूरत मतला...............बहुत उम्दा शेर हैं सारे!