पानी में दूध जैसे ही झाग ढूँढ़ते हैं
वो राख में सुलगती इक आग ढूँढ़ते हैं
फूलों की क्यारियाँ तो रख़ दीं उजाड़ कर सब
काँटों की झाड़ियों में वो पराग ढूँढ़ते हैं
खेलों में खोया बचपन रंगरेलियों में यौवन
अब आखिरी क्षणों में वैराग ढूँढ़ते हैं
आदी हैं हाथ जिसके बन्दूक बम छुरों के
पत्थर के उस ह्रदय में अनुराग ढूँढ़ते हैं
उम्मीद क्या करें अब इंसानियत की उनसे
जो ह़र लहू के कतरे में फाग ढूँढ़ते हैं
रक्खे थे जिंदगी भर माँ-बाप आश्रमों में
करने को श्राद्ध उनका अब काग ढूँढ़ते हैं
पूरी रँगी हुई है कालिख से खुद की चादर
औरों की साफ़ चादर में दाग ढूँढ़ते हैं
पाला हुआ ह्रदय में भ्रम और संशयों को
अब सिर्फ आस्तीनों में नाग ढूँढ़ते हैं
ले नाम रोशनी का करता रहा छलावा
जिसने ये घर जलाया वो चिराग ढूँढ़ते हैं
मुश्किल हुआ है जीना और आबरू बचाना
पग पग पे अपना आँचल और पाग ढूँढ़ते हैं
हैं छंद गीत ग़ज़लों से 'भारद्वाज' रीते
वे गद्य की कड़ी में ही राग ढूँढ़ते हैं
चंद्रभान भारद्वाज
2 comments:
हमेशा की तरह एक बार फिर शानदार गज़ल्…………हर शेर सोचने को मजबूर करता है।
बहुत खूबसूरत गज़ल
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