नदी को पार कर बैठा हुआ हूँ;
सभी कुछ हार कर बैठा हुआ हूँ.
मिले बिन मान के ऐश्वर्य सारे,
उन्हें इनकार कर बैठा हुआ हूँ.
मना पाया न रूठी ज़िन्दगी को,
बहुत मनुहार कर बैठा हुआ हूँ.
मुझे मझधार में जो छोड़ आया,
उसे मैं तार कर बैठा हुआ हूँ.
बहा कर आ गया हूँ सब नदी में,
जो भी उपकार कर बैठा हुआ हूँ.
उधर सब मन की मर्ज़ी कर रहे हैं,
इधर मन मार कर बैठा हुआ हूँ.
बिना अपराध के भी हर सजा को,
सहज स्वीकार कर बैठा हुआ हूँ.
ज़माना इसलिए नाराज मुझ से,
किसी को प्यार कर बैठा हुआ हूँ.
अँधेरा हो न 'भारद्वाज' हावी,
दिया तैयार कर बैठा हुआ हूँ.
चंद्रभान भारद्वाज
Tuesday, January 12, 2010
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7 comments:
मना पाया न रूठी ज़िन्दगी को,
बहुत मनुहार कर बैठा हुआ हूँ.
सुंदर उदगार , अच्छी रचना
उधर सब मन की मर्ज़ी कर रहे हैं,
इधर मन मार कर बैठा हुआ हूँ.
क्या बात है ..एक से बढ़कर एक
सरल सहज और सागर सी गहरी
यक़ीनन काबिल-ए -दाद .
दाद ..क़ुबूल करें
बहुत सुन्दर मन कि भावनाये ! शायद हम मे से बहुत लोग आपके इस विचार सह् मत होगे !
bahut hi sundar aur sahaj bhav..........badhayi
बहुत खूबसूरत रचना भारद्वाज जी...आपकी रचनाएँ पढ़ कर हमेशा अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है...
नीरज
मना पाया न रूठी ज़िन्दगी को,
बहुत मनुहार कर बैठा हुआ हूँ.
उधर सब मन की मर्ज़ी कर रहे हैं,
इधर मन मार कर बैठा हुआ हूँ.
अँधेरा हो न 'भारद्वाज' हावी,
दिया तैयार कर बैठा हुआ हूँ.
वाह-वा ....
मुहतरम जनाब भारद्वाज जी
अभी अभी आपकी कही हुई नायाब ग़ज़ल
पढी है और
दिलो-दिमाग़ में एक अजब सा सुकून
तारी हो गया है
एक-एक शेर अपनी मिसाल आप हो रहा है
बानगी और लहजा ऐसा ....
निहायत सुलझा हुआ कि
बात अपने आप पढने वालों को
अपनी-सी लगने लगती है
आप को पढ़ना हर बार
एक अच्छा तज्रबा रहता है
आपकी शफ़क़त और राहनुमाई का तालिब . . .
'मुफलिस'
श्रद्देय भारद्वाज जी, आदाब
'नदी को पार कर बैठा हुआ हूँ;
सभी कुछ हार कर बैठा हुआ हूँ.'
से लेकर
'अँधेरा हो न 'भारद्वाज' हावी,
दिया तैयार कर बैठा हुआ हूँ.'
तक पूरी ग़ज़ल ने बांध कर रखा है..
आपने कहा था 'सादा सी ग़ज़ल'???
बस हमें तो ऐसी 'सादा' ही पढ़वाते रहें,
आपकी इनायत होगी
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
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