Friday, August 1, 2014

इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है

इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है
आह की आग  ज़माने को जला देती है

शब्द करते हैं असर जब भी किसी वाणी के
एक आवाज ही मुर्दों को  जगा देती है

चाह जब बढ़ के पहुँचती है मिलन की हद तक
इक नदी खुद को ही सागर में मिला देती है

भूल अपनी पे सजा मिलती है औरों को अगर
वो हमें अपनी निगाहों में गिरा देती है

घर के हालात छिपाते तो छिपाते कैसे
हाल आँगन की ही दीवार बता देती है

प्यार तो सींचता रहता है जड़ें पौधों की
पर घृणा डालों  पे विष बेल चढ़ा देती है 

राख में ढूँढती रहती है सदा चिनगारी
हरिक चिनगारी को ये दुनिया हवा देती है

आपने किस से लिया और दिया है किस को
ज़िंदगी आपके खाते में लिखा देती है

कामयाबी को मदद करती  है नाकामी भी
एक नाकामी कई राह दिखा देती है

नींद आती है मगर स्वप्न नहीं आते हैं
एक इंसान को जब मौत सुला देती है

तख़्त विश्वास का मजबूत बना हो चाहे
कील संदेह की पायों को हिला देती है

नेट पर चैट भी मैसेज भी करती  रहती
पर न वो फोन न वो अपना पता देती है

जिस पे चढ़ती है नशा बन के 'भरद्वाज' ग़ज़ल
उसको 'ग़ालिब' या उसे 'मीर' बना देती है

चंद्रभान भारद्वाज


 

No comments: