Tuesday, February 1, 2011

कौन देखता है

टूटे हुए मचानों को कौन देखता है
उजड़े पड़े मकानों को कौन देखता है

भर तो दिए  समय ने पर दर्द है अभी तक
घावों के उन निशानों को कौन देखता है

बारात जा चुकी है और उठ चुकी है डोली
अब सूने शामियानों को कौन देखता है

महफ़िल में सब निगाहें बस मंच पर टिकी हैं
नीचे के पायदानों को कौन देखता है

आते रहें उजाले मिलती रहे हवा भी
ऐसे उजालदानों को कौन देखता है

बनने को खीर पहले जो आग पर चढ़े थे
उन चावलों मखानों को कौन देखता है

गा गा के जिनको झेलीं थीं लाठियाँ और गोली
अब उन अमर तरानों को कौन देखता है

सब देखते दरीचे दालान और गुम्बद
पर नीव की चटानों को कौन देखता है

बलिदान हो गए हैं जो सरहदों की खातिर
उन वीरों उन जवानों को कौन देखता है

कन्धों से दूसरों के बस साधते निशाना
अब तीर या कमानों को कौन देखता है

पानी रुका है ऊपर नीचे है रेत केवल
नदियों के उन मुहानों को कौन देखता है

तुमको दिखाना होगा खुद वर्तमान अपना
गुज़रे हुए ज़मानों को कौन देखता है

डाली हुई सियासत की 'भारद्वाज' दिल में
नफ़रत की अब गठानों को कौन देखता है

चंद्रभान भारद्वाज

2 comments:

'साहिल' said...

बारात जा चुकी है और उठ चुकी है डोली
अब सूने शामियानों को कौन देखता है

तुमको दिखाना होगा खुद वर्तमान अपना
गुज़रे हुए ज़मानों को कौन देखता है


एक बार फिर से बहुत उम्दा ग़ज़ल पेश की है आपने.........पूरी ग़ज़ल लाजवाब लगी.

Kailash Sharma said...

सब देखते दरीचे दालान और गुम्बद
पर नीव की चटानों को कौन देखता है

khoobasoorat gazal..