Wednesday, November 10, 2010

पूरी उमर खपा दी इक घर तलाशने में

पग भर ज़मीन डग भर अंबर तलाशने में
पूरी उमर खपा दी इक घर तलाशने में

पल प्यार के गँवाए बस देखने में दरपन
श्रृंगार   के   गँवाए   जेवर  तलाशने   में

करते रहे हैं वादा वो ताज के लिए पर
अटके   हुए  हैं  संगेमरमर   तलाशने   में

चट्टान काट आई मैदान लाँघ आई
बालू हुई नदी अब सागर तलाशने में

तम से भरी डगर से तो  आगए निकलकर
भटके तेरी गली में तेरा दर तलाशने में

नीलाम  हो गया है अपना हरेक सपना
तेरी शान में  दमकते गौहर तलाशने में 

सब चूर चूर होते हैं ख्वाब लड़कियों के
होती है भूल कोई जब वर तलाशने में

करवट बदल बदल कर कटती है रात बाकी
जब नीद टूटती है बिस्तर तलाशने में

माया के जाल में अब वे भी फँसे हुए हैं
रहना था लीन जिनको ईश्वर तलाशने में

मंदिर बनाने वाले मस्जिद बनाने वाले
उलझे हुए हैं अबतक पत्थर तलाशने में

वह मिल नहीं सकेगा तुम्हें  'भारद्वाज' बाहर
पाओगे उसको अपने अंदर तलाशने में

चंद्रभान भारद्वाज

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत भावों को संजोये अच्छी गज़ल ..

arvind said...

करते रहे हैं वादा वो ताज के लिए पर
अटके हुए हैं संगेमरमर तलाशने में...vah bahut acchhi gajal.

vandana gupta said...

अति उत्तम भाव संयोजन्।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

Kunwar Kusumesh said...

पूरी ग़ज़ल बेहतरीन,शिल्प और भाव दोनों लिहाज़ से.

अनुपमा पाठक said...

sundar rachna!
regards,