Sunday, September 26, 2010

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है
गिराता है  हमें   अपना   उठाने   और   आता   है

झपट्टा मार कर  सहसा छिनाता वक़्त हाथों से
कभी जब मुँह तलक रोटी का कोई कौर आता है

अचानक आँधियाँ आतीं कि गिरते ओले बेमौसम 
उमगती आम की डालों पे जब भी बौर आता है 

कदम जिस ओर भी बढ़ते नज़र जिस ओर भी उठती
नज़र चोरों का चौराहा ठगों का ठौर आता है

सुबकती माथे की बिंदी ठिठकते पाँव के बिछुआ
बिरहिनी ज़िन्दगी में पर्व जब गनगौर आता है

उभरता शक निगाहों में पनपती ईर्षा मन में
किसी सिर पर सफलताओं का जब भी मौर आता है

है मीठा स्वाद सौंधी गंध 'भारद्वाज' रिश्तों की
यहीं का बन के रह जाता जो भी इंदौर आता है

चंद्रभान भारद्वाज

9 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है
गिराता है हमें अपना उठाने और आता है

बेहतरीन मतला ,बहुत ख़ूब !
ख़ूबसूरत ग़ज़ल!

शारदा अरोरा said...

वाह , ये ग़ज़ल तो आपके अनुभव से पगी है , और इंदौर , ये भी खुदा ने आपको खूब बख्शा ...ग़ज़ल पसंद आई , बधाई ।

S.M.Masoom said...

सफ़र में चलते चलते ऐसा भी इक दौर आता है
गिराता है हमें अपना उठाने और आता है
गज़क बेहतरीन है .हाँ इन विचारों से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी
नमस्कार !
बुरा न मानें तो कहूं , आपकी इस ग़ज़ल में वो बात नज़र नहीं आई जो अन्य ग़ज़लों में हुआ करती है ।
शब्द छिनाता भी जमा नहीं ।

न सूखी डाल पर कोंपल न उस पर बौर आता है
यहां आप बात " न बौर " के साथ " न कोंपल " की कहना चाहते हैं , लेकिन बल "सूखी डाल" पर आ रहा है ।
ठिठकते पांव के बिछुआ … में भी क्रिया बहुवचन में प्रयुक्त है , बिछुआ एकवचन। पांव के बिछुए होना चाहिए था .

आप जैसे समर्थवान ग़ज़लकार से त्रुटि की तो मैं सोच भी नहीं सकता । हां , कुछ चूक कई जगह रह गई इस बार ।
अन्यथा ग़ज़ल बहुत शानदार जानदार है ।


शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

chandrabhan bhardwaj said...

भाई राजेंद्र जी, नमस्कार
आपने मेरी ग़ज़ल पढ़ी और उस पर अपने विचार व्यक्त किये
इसके लिए आपका आभारी हूँ . आप तो स्वयं रचनाकार हैं और अच्छी
तरह समझते हैं कि हर रचनाकार अपना श्रेष्ठ देने का प्रयास करता है
अब यह पाठक के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण
करता है इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है
जहाँ तक 'छिनाता' शब्द का प्रश्न है इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है
कि यहाँ पर 'छिनाता' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द उपयुक्त ही नहीं होता
मैंने यहाँ लिखा है 'छिनाता वक़्त हाथों से' , वक़्त एक ऐसा यथार्थ है जो
स्वयं कुछ नहीं करता वरन किसी न किसी माध्यम से करवाता है. यदि मैं
'गिराता' शब्द का प्रयोग करता तो इसका अर्थ होता वक़्त स्वयं गिराता है
इसी तरह छीनता में भी वक़्त स्वयं छीनता जब कि छिनाता शब्द का अर्थ
है कि वक़्त किसी दूसरे माध्यम से छिनवाता है अतः मेरे विचार में 'छिनाता'
शब्द से अधिक उपयुक्त कोई दूसरा शब्द होता ही नहीं अतः यह शब्द जमा नहीं
इस बात से मैं सहमत नहीं.
'ठिठकते पाँव के बिछुआ' के सम्बन्ध में मेरा विचार है कि काव्य में 'ठिठकते पाँव
के बिछुआ' बहुबचन के रूप में ही प्रयोग किये जाते हैं एक बचन में नहीं यह सही है कि
'बिछुआ' का बहुबचन 'बिछुए' है लेकिन पाँव के साथ 'के' शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः यह
पूरा विन्यास ही बहुबचन हो जाता है. यदि 'पाँव का बिछुआ' होता तो एक्बचन होता'
साधारणतया बोलचाल में भी 'पाँव के बिछुआ' प्रयुक्त होते हैं. इस सम्बन्ध में एक
उदाहरण देना उचित होगा . 'नशा' एकबचन है इसका बहुबचन हुआ 'नशे' लेकिन इसका
प्रयोग करते समय लिखा जाता है 'वह नशे में है' या 'मैं नशे' में हूँ' जबकि एकबचन के हिसाब से
लिखा जाना चाहिए कि'वह नशा में है' या मैं नशा में हूँ'
पहले मैंने 'पाँव के बिछुए' प्रयोग किया था लेकिन रवानी में कुछ अटक सी महसूस होती थी
अतः फिर इसे बिछुआ' ही लिखा. मेरे विचार में यह कोई त्रुटि नहीं है
फिर भी यह तो ऐसा महासागर है जहाँ भिन्न भिन्न विचार पढ़ने को मिलते हैं
आपने मुझ नाचीज को समर्थवान कहा यह आपकी दरियादिली है वैसे मैं तो खुद को कुछ मानता ही नहीं
पुनः आपका आभार व्यक्त करता हूँ

chandrabhan bhardwaj said...

भाई राजेंद्र जी, नमस्कार
आपने मेरी ग़ज़ल पढ़ी और उस पर अपने विचार व्यक्त किये
इसके लिए आपका आभारी हूँ . आप तो स्वयं रचनाकार हैं और अच्छी
तरह समझते हैं कि हर रचनाकार अपना श्रेष्ठ देने का प्रयास करता है
अब यह पाठक के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण
करता है इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है
जहाँ तक 'छिनाता' शब्द का प्रश्न है इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है
कि यहाँ पर 'छिनाता' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द उपयुक्त ही नहीं होता
मैंने यहाँ लिखा है 'छिनाता वक़्त हाथों से' , वक़्त एक ऐसा यथार्थ है जो
स्वयं कुछ नहीं करता वरन किसी न किसी माध्यम से करवाता है. यदि मैं
'गिराता' शब्द का प्रयोग करता तो इसका अर्थ होता वक़्त स्वयं गिराता है
इसी तरह छीनता में भी वक़्त स्वयं छीनता जब कि छिनाता शब्द का अर्थ
है कि वक़्त किसी दूसरे माध्यम से छिनवाता है अतः मेरे विचार में 'छिनाता'
शब्द से अधिक उपयुक्त कोई दूसरा शब्द होता ही नहीं अतः यह शब्द जमा नहीं
इस बात से मैं सहमत नहीं.
'ठिठकते पाँव के बिछुआ' के सम्बन्ध में मेरा विचार है कि काव्य में 'ठिठकते पाँव
के बिछुआ' बहुबचन के रूप में ही प्रयोग किये जाते हैं एक बचन में नहीं यह सही है कि
'बिछुआ' का बहुबचन 'बिछुए' है लेकिन पाँव के साथ 'के' शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः यह
पूरा विन्यास ही बहुबचन हो जाता है. यदि 'पाँव का बिछुआ' होता तो एक्बचन होता'
साधारणतया बोलचाल में भी 'पाँव के बिछुआ' प्रयुक्त होते हैं. इस सम्बन्ध में एक
उदाहरण देना उचित होगा . 'नशा' एकबचन है इसका बहुबचन हुआ 'नशे' लेकिन इसका
प्रयोग करते समय लिखा जाता है 'वह नशे में है' या 'मैं नशे' में हूँ' जबकि एकबचन के हिसाब से
लिखा जाना चाहिए कि'वह नशा में है' या मैं नशा में हूँ'
पहले मैंने 'पाँव के बिछुए' प्रयोग किया था लेकिन रवानी में कुछ अटक सी महसूस होती थी
अतः फिर इसे बिछुआ' ही लिखा. मेरे विचार में यह कोई त्रुटि नहीं है
फिर भी यह तो ऐसा महासागर है जहाँ भिन्न भिन्न विचार पढ़ने को मिलते हैं
आपने मुझ नाचीज को समर्थवान कहा यह आपकी दरियादिली है वैसे मैं तो खुद को कुछ मानता ही नहीं
पुनः आपका आभार व्यक्त करता हूँ

chandrabhan bhardwaj said...

भाई राजेंद्र जी, नमस्कार
आपने मेरी ग़ज़ल पढ़ी और उस पर अपने विचार व्यक्त किये
इसके लिए आपका आभारी हूँ . आप तो स्वयं रचनाकार हैं और अच्छी
तरह समझते हैं कि हर रचनाकार अपना श्रेष्ठ देने का प्रयास करता है
अब यह पाठक के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण
करता है इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है
जहाँ तक 'छिनाता' शब्द का प्रश्न है इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है
कि यहाँ पर 'छिनाता' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द उपयुक्त ही नहीं होता
मैंने यहाँ लिखा है 'छिनाता वक़्त हाथों से' , वक़्त एक ऐसा यथार्थ है जो
स्वयं कुछ नहीं करता वरन किसी न किसी माध्यम से करवाता है. यदि मैं
'गिराता' शब्द का प्रयोग करता तो इसका अर्थ होता वक़्त स्वयं गिराता है
इसी तरह छीनता में भी वक़्त स्वयं छीनता जब कि छिनाता शब्द का अर्थ
है कि वक़्त किसी दूसरे माध्यम से छिनवाता है अतः मेरे विचार में 'छिनाता'
शब्द से अधिक उपयुक्त कोई दूसरा शब्द होता ही नहीं अतः यह शब्द जमा नहीं
इस बात से मैं सहमत नहीं.
'ठिठकते पाँव के बिछुआ' के सम्बन्ध में मेरा विचार है कि काव्य में 'ठिठकते पाँव
के बिछुआ' बहुबचन के रूप में ही प्रयोग किये जाते हैं एक बचन में नहीं यह सही है कि
'बिछुआ' का बहुबचन 'बिछुए' है लेकिन पाँव के साथ 'के' शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः यह
पूरा विन्यास ही बहुबचन हो जाता है. यदि 'पाँव का बिछुआ' होता तो एक्बचन होता'
साधारणतया बोलचाल में भी 'पाँव के बिछुआ' प्रयुक्त होते हैं. इस सम्बन्ध में एक
उदाहरण देना उचित होगा . 'नशा' एकबचन है इसका बहुबचन हुआ 'नशे' लेकिन इसका
प्रयोग करते समय लिखा जाता है 'वह नशे में है' या 'मैं नशे' में हूँ' जबकि एकबचन के हिसाब से
लिखा जाना चाहिए कि'वह नशा में है' या मैं नशा में हूँ'
पहले मैंने 'पाँव के बिछुए' प्रयोग किया था लेकिन रवानी में कुछ अटक सी महसूस होती थी
अतः फिर इसे बिछुआ' ही लिखा. मेरे विचार में यह कोई त्रुटि नहीं है
फिर भी यह तो ऐसा महासागर है जहाँ भिन्न भिन्न विचार पढ़ने को मिलते हैं
आपने मुझ नाचीज को समर्थवान कहा यह आपकी दरियादिली है वैसे मैं तो खुद को कुछ मानता ही नहीं
पुनः आपका आभार व्यक्त करता हूँ

chandrabhan bhardwaj said...

भाई राजेंद्र जी, नमस्कार
आपने मेरी ग़ज़ल पढ़ी और उस पर अपने विचार व्यक्त किये
इसके लिए आपका आभारी हूँ . आप तो स्वयं रचनाकार हैं और अच्छी
तरह समझते हैं कि हर रचनाकार अपना श्रेष्ठ देने का प्रयास करता है
अब यह पाठक के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण
करता है इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है
जहाँ तक 'छिनाता' शब्द का प्रश्न है इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है
कि यहाँ पर 'छिनाता' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द उपयुक्त ही नहीं होता
मैंने यहाँ लिखा है 'छिनाता वक़्त हाथों से' , वक़्त एक ऐसा यथार्थ है जो
स्वयं कुछ नहीं करता वरन किसी न किसी माध्यम से करवाता है. यदि मैं
'गिराता' शब्द का प्रयोग करता तो इसका अर्थ होता वक़्त स्वयं गिराता है
इसी तरह छीनता में भी वक़्त स्वयं छीनता जब कि छिनाता शब्द का अर्थ
है कि वक़्त किसी दूसरे माध्यम से छिनवाता है अतः मेरे विचार में 'छिनाता'
शब्द से अधिक उपयुक्त कोई दूसरा शब्द होता ही नहीं अतः यह शब्द जमा नहीं
इस बात से मैं सहमत नहीं.
'ठिठकते पाँव के बिछुआ' के सम्बन्ध में मेरा विचार है कि काव्य में 'ठिठकते पाँव
के बिछुआ' बहुबचन के रूप में ही प्रयोग किये जाते हैं एक बचन में नहीं यह सही है कि
'बिछुआ' का बहुबचन 'बिछुए' है लेकिन पाँव के साथ 'के' शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः यह
पूरा विन्यास ही बहुबचन हो जाता है. यदि 'पाँव का बिछुआ' होता तो एक्बचन होता'
साधारणतया बोलचाल में भी 'पाँव के बिछुआ' प्रयुक्त होते हैं. इस सम्बन्ध में एक
उदाहरण देना उचित होगा . 'नशा' एकबचन है इसका बहुबचन हुआ 'नशे' लेकिन इसका
प्रयोग करते समय लिखा जाता है 'वह नशे में है' या 'मैं नशे' में हूँ' जबकि एकबचन के हिसाब से
लिखा जाना चाहिए कि'वह नशा में है' या मैं नशा में हूँ'
पहले मैंने 'पाँव के बिछुए' प्रयोग किया था लेकिन रवानी में कुछ अटक सी महसूस होती थी
अतः फिर इसे बिछुआ' ही लिखा. मेरे विचार में यह कोई त्रुटि नहीं है
फिर भी यह तो ऐसा महासागर है जहाँ भिन्न भिन्न विचार पढ़ने को मिलते हैं
आपने मुझ नाचीज को समर्थवान कहा यह आपकी दरियादिली है वैसे मैं तो खुद को कुछ मानता ही नहीं
पुनः आपका आभार व्यक्त करता हूँ

chandrabhan bhardwaj said...

भाई राजेंद्र जी, नमस्कार
आपने मेरी ग़ज़ल पढ़ी और उस पर अपने विचार व्यक्त किये
इसके लिए आपका आभारी हूँ . आप तो स्वयं रचनाकार हैं और अच्छी
तरह समझते हैं कि हर रचनाकार अपना श्रेष्ठ देने का प्रयास करता है
अब यह पाठक के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे किस रूप में ग्रहण
करता है इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं है
जहाँ तक 'छिनाता' शब्द का प्रश्न है इस सम्बन्ध में मेरा कहना यह है
कि यहाँ पर 'छिनाता' के अतिरिक्त अन्य कोई शब्द उपयुक्त ही नहीं होता
मैंने यहाँ लिखा है 'छिनाता वक़्त हाथों से' , वक़्त एक ऐसा यथार्थ है जो
स्वयं कुछ नहीं करता वरन किसी न किसी माध्यम से करवाता है. यदि मैं
'गिराता' शब्द का प्रयोग करता तो इसका अर्थ होता वक़्त स्वयं गिराता है
इसी तरह छीनता में भी वक़्त स्वयं छीनता जब कि छिनाता शब्द का अर्थ
है कि वक़्त किसी दूसरे माध्यम से छिनवाता है अतः मेरे विचार में 'छिनाता'
शब्द से अधिक उपयुक्त कोई दूसरा शब्द होता ही नहीं अतः यह शब्द जमा नहीं
इस बात से मैं सहमत नहीं.
'ठिठकते पाँव के बिछुआ' के सम्बन्ध में मेरा विचार है कि काव्य में 'ठिठकते पाँव
के बिछुआ' बहुबचन के रूप में ही प्रयोग किये जाते हैं एक बचन में नहीं यह सही है कि
'बिछुआ' का बहुबचन 'बिछुए' है लेकिन पाँव के साथ 'के' शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः यह
पूरा विन्यास ही बहुबचन हो जाता है. यदि 'पाँव का बिछुआ' होता तो एक्बचन होता'
साधारणतया बोलचाल में भी 'पाँव के बिछुआ' प्रयुक्त होते हैं. इस सम्बन्ध में एक
उदाहरण देना उचित होगा . 'नशा' एकबचन है इसका बहुबचन हुआ 'नशे' लेकिन इसका
प्रयोग करते समय लिखा जाता है 'वह नशे में है' या 'मैं नशे' में हूँ' जबकि एकबचन के हिसाब से
लिखा जाना चाहिए कि'वह नशा में है' या मैं नशा में हूँ'
पहले मैंने 'पाँव के बिछुए' प्रयोग किया था लेकिन रवानी में कुछ अटक सी महसूस होती थी
अतः फिर इसे बिछुआ' ही लिखा. मेरे विचार में यह कोई त्रुटि नहीं है
फिर भी यह तो ऐसा महासागर है जहाँ भिन्न भिन्न विचार पढ़ने को मिलते हैं
आपने मुझ नाचीज को समर्थवान कहा यह आपकी दरियादिली है वैसे मैं तो खुद को कुछ मानता ही नहीं
पुनः आपका आभार व्यक्त करता हूँ