Sunday, January 18, 2009

देखते हैं

तनिक सरहदें लाँघ कर देखते हैं;
उधर की हवा झाँक कर देखते हैं।

मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवेदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।

खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।

पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।

किनारे कहाँ तक सँभाले रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।

समय ने हमें सिर्फ रेवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।

'भरद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।

चंद॒भान भारद्वाज

10 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।

समय ने हमें सिर्फ रॅवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।
bahur sunder

निर्मला कपिला said...

मरी है कि जिन्दा है संवेदनाये इक लाश लटका कर देखते हं बहुत खूब कहा है

Alpana Verma said...

पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।

किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं। bahut hi josh se bhari kavita..bahut hi pasand aayi.

[achcha ho agar yah word verification hata saken ]

Udan Tashtari said...

'भारद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।

-बहुत उम्दा!! बेहतरीन!!

hem pandey said...

अच्छी रचना. साधुवाद.

श्रद्धा जैन said...

मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवॅदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।

bahut ghari baat

संगीता पुरी said...

अच्‍छी रचना है।

नीरज गोस्वामी said...

भारद्वाज साहेब...आप के ब्लॉग पर आज आना हुआ और आप की ग़ज़ल पढ़ी. सारे शेर लाजवाब हैं...पूरी ग़ज़ल एक गहरा असर छोड़ती है...बहुत ही अच्छा लगा आप को पढ़ कर...वाह...
नीरज

गौतम राजऋषि said...

सुभानल्लाह गुरूवर.."किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे, / उफनती नदी बाँध कर देखते हैं"

...और बेजोड़ मतला

वाह-वाह

Prakash Badal said...

मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवॅदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।

खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।

पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।

किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।
वाह वाह वाह भारद्वाज जी। मज़ा आ गया। क्या लयबद्ध ग़ज़ल कही है?