तनिक सरहदें लाँघ कर देखते हैं;
उधर की हवा झाँक कर देखते हैं।
मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवेदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।
खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।
पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।
किनारे कहाँ तक सँभाले रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।
समय ने हमें सिर्फ रेवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।
'भरद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।
चंद॒भान भारद्वाज
10 comments:
किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।
समय ने हमें सिर्फ रॅवड़ बनाया,
सभी हर तरफ हाँक कर देखते हैं।
bahur sunder
मरी है कि जिन्दा है संवेदनाये इक लाश लटका कर देखते हं बहुत खूब कहा है
पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।
किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं। bahut hi josh se bhari kavita..bahut hi pasand aayi.
[achcha ho agar yah word verification hata saken ]
'भारद्वाज' है प्रेम किसको वतन से,
चलो एक सर माँग कर देखते हैं।
-बहुत उम्दा!! बेहतरीन!!
अच्छी रचना. साधुवाद.
मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवॅदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।
bahut ghari baat
अच्छी रचना है।
भारद्वाज साहेब...आप के ब्लॉग पर आज आना हुआ और आप की ग़ज़ल पढ़ी. सारे शेर लाजवाब हैं...पूरी ग़ज़ल एक गहरा असर छोड़ती है...बहुत ही अच्छा लगा आप को पढ़ कर...वाह...
नीरज
सुभानल्लाह गुरूवर.."किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे, / उफनती नदी बाँध कर देखते हैं"
...और बेजोड़ मतला
वाह-वाह
मरीं हैं कि जिन्दा हैं संवॅदनाऍं ,
कहीं लाश इक टाँग कर देखते हैं।
खुली लाश मरघट तलक क्या उठाऍं,
किसी से कफन मांग कर देखते हैं।
पटी खाइयाँ या हुईं और चौड़ी ,
इधर से उधर फाँद कर देखते हैं।
किनारे कहाँ तक सँभालॅ रखेंगे,
उफनती नदी बाँध कर देखते हैं।
वाह वाह वाह भारद्वाज जी। मज़ा आ गया। क्या लयबद्ध ग़ज़ल कही है?
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