हवा जब भी सुहानी शाम का आलम लिए आई;
पुरानी याद कोई दर्द का सरगम लिए आई।
हमारे द्वार पर हरदम खुशी देती रही दस्तक,
मगर वह साथ में कोई न कोई गम लिए आई।
लगाई पौध तो अक्सर सुखाया धूप ने उसको,
फसल आई तो वह हिमपात का मौसम लिए आई।
उजाले रह गए हैं सिर्फ़ बहसों का विषय बनकर,
कुहासे से घिरी हरइक किरण बस तम लिए आई।
हमारे वक्त का बचपन सदा खेला घरोंदों से,
नई पीढी मगर हाथों में अपने बम लिए आई।
हमारी ज़िन्दगी जब हो गई आदी अमावस की,
चिढाने रात अक्सर चाँद या पूनम लिए आई।
नियामत बांटने आई थी 'भारद्वाज' जब किस्मत,
खुशी के बर्क़ में लिपटा हुआ मातम लिए आई।
चिढाने रात अक्सर चाँद या पूनम लिए आई।
नियामत बांटने आई थी 'भारद्वाज' जब किस्मत,
खुशी के बर्क़ में लिपटा हुआ मातम लिए आई।
1 comment:
bahut khoob!
Post a Comment