Wednesday, December 31, 2008

विश्वास अपना

न धरती है न अब आकाश अपना;
हमारे संग है विश्वास अपना।

गड़ाया पीठ में चाकू उसीने,
समझते थे जिसे हम ख़ास अपना।

उमर के प्रष्ट कुछ भीगे हुए हैं,
लिखा है दर्द ने इतिहास अपना।

न दीवारें न दरवाजे न खिड़की,
खुला फुटपाथ है आवास अपना।

सहमती कांच की खिड़की हमेशा,
बना घर पत्थरों के पास अपना।

कहाँ तक रूढियों को और ढोऐं,
नजरिया हो गया बिंदास अपना।

रहे बारात 'भारद्वाज' चौकस,
ठगों के बीच है जनवास अपना।

चंद्रभान भारद्वाज

2 comments:

Prakash Badal said...

आदरणीय चंद्र भान जी,

नए साल की आपको हार्दिक शुभकामनाएं। आपकी ग़ज़ल के तो क्या कहने? आपका मेरे प्रति जितना स्नेह है मैं भी आपका उतना आदर करता हूं और उम्मीद करता हूं कि आपका आशीर्वाद मुझे यूं ही मिलता रहे और आप स्वस्थ और लम्बी उम्र जींए तथा आपके परिवार में खुशियों की बौछार हो।

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai prakash ji, namaskar.
Aapne meri ghazal padi aur us par apni tippadi likhi iske liye abhari hoon. Naye saal ki aapko bhi hardik shubhakaamnayen.Aap saparivaar swastha aur saanand rahen yahi kaamana karata hoon. dhanyawad.
chandrabhan bhardwaj.