Sunday, April 8, 2012

वैश्वीकरण की मार ले डूबी

शहर को हर तरफ वैश्वीकरण की मार ले डूबी 
तरक्की गाँव का हल खेत घर परिवार ले डूबी 

पुरानी साइकिल से तो किया हर  रास्ता पूरा 
नई आसान किश्तों में ख़रीदी कार ले डूबी 

सुरक्षित आ गए कच्ची सड़क से खाते हिचकोले 
मगर पक्की सड़क की भागती रफ़्तार ले डूबी 

हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन 
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी 

किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर 
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डूबी 

न तो जड़ से रहा नाता  न रिश्ता कोई मिट्टी से 
प्रथाओं संस्कारों को समय की धार ले डूबी 

दिया संतोष 'भारद्वाज' घर की दाल रोटी ने 
मगर पीजा की बर्गर की हमें दरकार ले डूबी 

चंद्रभान भारद्वाज 

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!!

प्रतिभा सक्सेना said...

वैश्वीकरण की मार से जो कुछ बचा-खुचा अपना था वह भी दाँव लगता जा रहा है!

Yashwant R. B. Mathur said...

सर!बिलकुल सटीक विचार हैं आपके ।



सादर

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी

किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डू....prashansha ke liye shabd nahi hain mere paas..bhavuk kar dene wali shasakt rachna..sadar badhayee aaur amantran ke sath