शहर को हर तरफ वैश्वीकरण की मार ले डूबी
तरक्की गाँव का हल खेत घर परिवार ले डूबी
पुरानी साइकिल से तो किया हर रास्ता पूरा
नई आसान किश्तों में ख़रीदी कार ले डूबी
सुरक्षित आ गए कच्ची सड़क से खाते हिचकोले
मगर पक्की सड़क की भागती रफ़्तार ले डूबी
हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी
किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डूबी
न तो जड़ से रहा नाता न रिश्ता कोई मिट्टी से
प्रथाओं संस्कारों को समय की धार ले डूबी
दिया संतोष 'भारद्वाज' घर की दाल रोटी ने
मगर पीजा की बर्गर की हमें दरकार ले डूबी
चंद्रभान भारद्वाज
4 comments:
बहुत बढिया!!
वैश्वीकरण की मार से जो कुछ बचा-खुचा अपना था वह भी दाँव लगता जा रहा है!
सर!बिलकुल सटीक विचार हैं आपके ।
सादर
हुआ है इस कदर भारी तनावों से भरा जीवन
धड़कनें छत से जा लटकीं तनिक फटकार ले डूबी
किनारे तो मिले थे बाँह फैलाये हुए अक्सर
कभी माँझी कभी कश्ती कभी पतवार ले डू....prashansha ke liye shabd nahi hain mere paas..bhavuk kar dene wali shasakt rachna..sadar badhayee aaur amantran ke sath
Post a Comment