जब परों पर बंदिशें हों तो गगन का क्या करें
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें
ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें
बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें
फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें
चंद्रभान भारद्वाज
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें
ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें
बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें
फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें
चंद्रभान भारद्वाज
3 comments:
भारद्वाज जी
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
बहुत प्यारा शेर कह दिया आपने...... वाह !!!
तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
ये शेर भी क्या खूब रहा.....!!!
भाई साहब भारद्वाजजी ,
आनंद आ गया। गगन का क्या करें । वाह । बहुत अच्छा लिख रहे हैं ।
बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें
जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
एक से एक नगीने हैं , इस ग़ज़ल में.
बधाई कबूल करें!
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