Wednesday, August 3, 2011

गगन का क्या करें

जब परों पर बंदिशें हों तो गगन का क्या करें
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें

ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें

बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें

जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें

तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें

हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें

फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें

चंद्रभान भारद्वाज

3 comments:

Pawan Kumar said...

भारद्वाज जी

जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें
बहुत प्यारा शेर कह दिया आपने...... वाह !!!

तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें
ये शेर भी क्या खूब रहा.....!!!

Prabhu Trivedi said...

भाई साहब भारद्वाजजी ,
आनंद आ गया। गगन का क्या करें । वाह । बहुत अच्छा लिख रहे हैं ।

'साहिल' said...

बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें

जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें

एक से एक नगीने हैं , इस ग़ज़ल में.
बधाई कबूल करें!