Sunday, July 17, 2011

मान बैठे हैं


खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं

चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं

उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं

किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं

धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं

किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं 
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं

लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में 
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं

चंद्रभान भारद्वाज

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं

बहुत बढ़िया कटाक्ष ... खूबसूरत गज़ल

नीरज गोस्वामी said...

उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं

आदरणीय भारद्वाज जी आपकी ग़ज़ल पर टिपण्णी क्या करूँ...पढ़ कर धन्य हो रहा हूँ...

नीरज

'साहिल' said...

खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं

चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं


आपकी ग़ज़लें पढ़कर तो बस वाह! कर सकते हैं...........टिपण्णी करने का सामर्थ्य नहीं रखते!

chandrabhan bhardwaj said...

संगीता जी, नीरज भाई एवं साहिल भाई,
आपकी टिपण्णी पढ़ कर बड़ा सुकून मिलता है
लगता हैं लेखन सार्थक हो गया इसके लिए
आपका हार्दिक आभार मानता हूँ .

Pawan Kumar said...

पूरी ग़ज़ल उम्दा है. किसी एक शेर की तारीफ करना बेईमानी होगी... फिर भी ये शेर तो इस ग़ज़ल का नगीना है...!!!!

उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं
वाह वाह.... अति सुन्दर.

ये शेर भी क्या खूब है.....
धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं
उम्दा ग़ज़ल पोस्ट करने का शुक्रिया.

Jennifer said...

Everything is very open and very clear explanation of topic. It contains truly information.


web hosting india