Monday, April 18, 2011

अच्छा लगा

मस्तियों शैतानियों का दौर ही अच्छा लगा 
ज़िन्दगी में आप थे तो और ही अच्छा लगा 

आज लगते हैं हमें रसहीन छप्पन भोग भी 
आप के हाथों का सूखा कौर ही अच्छा लगा 

अब ख़ुशी देता नहीं सिर पर मुकुट रतनों जड़ा
आप से पहना खजूरी मौर ही अच्छा लगा 

राह में चलते समय पद चिन्ह देखे आपके 
तो हमें सुनसान सा वह ठौर ही अच्छा लगा 

आप बिन भाती नहीं फलती हुई अमराइयाँ
आप थे तो ठूँठ इक बिन बौर ही अच्छा लगा 

जब कभी तनहाइयों में याद आती आपकी
तब पलक पर आँसुओं का दौर ही अच्छा लगा 

यार 'भारद्वाज' अब  न्यूयार्क पेरिस कुछ नहीं
आप के सँग तो हमें इंदौर ही अच्छा लगा

चंद्रभान भारद्वाज



6 comments:

arvind said...

bahoot khoob....aapki ye shaayeri hamako bahut achhaa lagaa.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर ....अपना घर ही अच्छा लगता है ..

वीनस केसरी said...

सुन्दर ..

Pawan Kumar said...

सारे शेर अच्छे बन पड़े हैं..... ग़ज़ल जज़्बातों से भीगी हुयी सी लगी.
बहरहाल हमें ये शेर अच्छा लगा
आप बिन भाती नहीं फलती हुई अमराइयाँ
आप थे तो ठूँठ इक बिन बौर ही अच्छा लगा


जब कभी तनहाइयों में याद आती आपकी
तब पलक पर आँसुओं का दौर ही अच्छा लगा

Dr Varsha Singh said...

आप बिन भाती नहीं फलती हुई अमराइयाँ
आप थे तो ठूँठ इक बिन बौर ही अच्छा लगा

ग़ज़ल का हर शेर लाजवाब है ! शुक्रिया !

ashish kumar shukla said...

atyant sundar....