हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक
वक़्त अमृत की नदी को कर रहा विषमय
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक
घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर सिर्फ एक चिराग है मालिक
हर नज़र ठहरी हुई है बाज सी उस पर
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक
थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक
रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता बाग़ है मालिक
बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग है मालिक
पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक
क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो पाग है मालिक
चंद्रभान भारद्वाज
Tuesday, October 12, 2010
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5 comments:
बहुत ही उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।
बेहतरीन ! एक एक शेर दिल को छुं गई !
घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर सिर्फ एक चिराग है मालिक
लाजवाब!
पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक
आपकी गज़ले हमेशा सोचने को मजबूर कर देती हैं……………बेहद उम्दा।
थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक
रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता बाग़ है मालिक
बहुत खूबसूरत गज़ल ..समाज की विसंगतियों को बताती हुई
बहुत उम्दा ग़ज़लें हैं आपकी........पढ़ के बहुत आनंद आया.....दाद कबूल करें
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