मृग तृष्णा में बलुआ धरती पानी सी लगती
छलना अक्सर सच की एक कहानी सी लगती
कोख किराये पर मिलती है अब बाजारों में
मूल्यों की हर बात यहाँ बेमानी सी लगती
एक छलाँग लगाकर कल आकाश छुआ हमने
पर ऐसी हर कोशिश अब नादानी सी लगती
शंकाओं ने बोये ऐसे बीज विचारों में
सत्य कहानी लेकिन गलत बयानी सी लगती
कदम कदम पर जाल छलावों और कुचक्रों के
मीठे बोलों के पीछे शैतानी सी लगती
प्रश्न खड़े हैं कपड़ा रोटी और मकानों के
उत्तर कुटिल समय की आनाकानी सी लगती
भाषा भेष और भूषा में ऐसी बौराई
हिन्दुस्तानी पीढ़ी इंग्लिस्तानी सी लगती
पहले देखा और न पहले परिचय था कोई
लेकिन वह सूरत जानी पहचानी सी लगती
जब भी 'भारद्वाज' करे दुःख दर्दों की बातें
जाने क्यों वह अपनी रामकहानी सी लगती
चंद्रभान भारद्वाज
Friday, June 11, 2010
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12 comments:
sateek rachna.
छलना अक्सर सच की एक कहानी सी लगती ..sach !
मृग तृष्णा में बलुआ धरती पानी सी लगती
चंद्रभान जी,बहुत ही बेहतरीन व सामयिक रचना है। बधाई स्वीकारें।
शंकाओं ने बोये ऐसे बीज विचारों में
सत्य कहानी लेकिन गलत बयानी सी लगती
बिल्कुल सच्ची बात कही आप ने ,
भरोसे का अभाव समाज में जड़ जमाता जा रहा है,
मतला भी बहुत सुंदर है
बहुत ख़ूब ! बेहतरीन शेर हैं ... सुन्दर रचना !!
कोख किराये पर मिलती है अब बाजारों में
मूल्यों की हर बात यहाँ बेमानी सी लगती
बहुत अच्छी गज़ल...सारी समस्याओं का वर्णन कर दिया है...
कोख किराये पर मिलती है अब बाजारों में
मूल्यों की हर बात यहाँ बेमानी सी लगती
...jitani bhi prashashaa ki jaaye kam hai...bahut badhiya.
बहुत बढि़या!
कोख किराये पर मिलती है अब बाजारों में
मूल्यों की हर बात यहाँ बेमानी सी लगती
बेहतरीन .. इतना यथार्थ पूर्ण शेर बहुत समय से नही पढ़ा .... सलाम है आपकी लेखनी को ...
.....बहुत अर्थपूर्ण गजल
bahut umda,,,,
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