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हंस सब उड़ गए
सूखती झील में काइयाँ रह गईं;
हंस सब उड़ गए मछलियाँ रह गईं।
रेत सी उम्र कण कण बिखरती रही,
हाथ खाली बँधी मुट्ठियाँ रह गईं।
सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।
अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं।
यह सियासत पुलिंदा बनी झूठ का,
गाँठ में गालियाँ फ़ब्तियाँ रह गईं।
अब घटाओं में पानी रहा ही नहीं,
गड़गड़ाहट रही बिजलियाँ रह गईं।
रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।
प्यार के ख़त नदी में बहाए मगर,
याद की शेष कुछ सीपियाँ रह गईं।
काट कर दिल 'भरद्वाज' लिख दी ग़ज़ल,
पर कहीं ख़म कहीं खामियाँ रह गईं।
चंद्रभान भारद्वाज
11 comments:
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं। ....बहुत ही सुन्दर अभिवक्ति....जी यही सब होता है दुनिया में. हम खड़े रह जाते है और कारवां..गुजर जाता है...
AB AAPKE GAZAL KE BAARE ME KYA KAHUN HAR SHE'R KABILE DAAD HAI BAHOT HI MUSHKIL KAFIYE KA NIRVAAHAN UMDAA TARIKE SE UMDAA SHAAYEER HI KAR SAKTA HAI .. DHERO BADHAAYEE AAPKO SAHIB ... KUSHAL KAAMNAA SAHIT..
ARSH
वेसे तो सारी गज़ल ही कबिले तरीफ है हर शे अर सछ का आईना दिखाता है
खरीदे हुए इस मंछ पर ख्रीदी हुई तालियां रह गयी
बहुत ही स्टीक सुन्दर अभिव्यक्ति है अभार
सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।
रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।
दमदार ग़ज़ल के उपरोक्त शेर दिल को छू गए.
बधाई स्वीकार करें
चन्द्र मोहन गुप्त
बेहतरीन! उम्दा रचा है!!
सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।
अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं।
रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।
काट कर दिल 'भरद्वाज' लिख दी ग़ज़ल,
पर कहीं ख़म कहीं खामियाँ रह गईं।
ye sabhi sher bhaut pasand aaye
aapki gazal ko padhna apne aap mein khushnaseebi hai
बहुत सुंदर ग़ज़ल सर और खास कर ये शेर तो बहुत ही भाया है
"अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं"
Bhai Shri Rajnish Parihar, Arsh, Chandramohan Gupta, Samirlal ji aur Madam Nirmla Kapila avam Shraddha Jain ji aap sabhi ne mere blog par meri ghazal padi aur us par apni tippadi likhi iske liye main sabhi ka hraday se aabhaari hoon. Dhanyawad.
तालियाँ...मगर ख़रीदी हुई नहीं दिल से निकली हुई सदर समर्पित
रेत सी उम्र कण कण बिखरती रही,
हाथ खाली बँधी मुट्ठियाँ रह गईं।
bahut sunder...wah!!
अब घटाओं में पानी रहा ही नहीं,
गड़गड़ाहट रही बिजलियाँ रह गईं।
सुन्दर अभिव्यक्ति
श्याम सखा‘श्याम‘
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