कठिनाइयों को ज़िन्दगी का प्यार मानना;
ठोकर लगे तो जीत का इक द्वार मानना।
रखना निगाहों में सदा तारे बिछे हुए,
कांटा चुभे तो फूल की बौछार मानना।
सुलगा हुआ रखना यहाँ चूल्हा इक आस का,
सब रोटियों पर भूख का अधिकार मानना।
आने लगेंगीं ख़ुद उधर की आहटें इधर,
दीवार को भी अधखुला सा द्वार मानना।
जो शब्द बनते सनसनी कुछ देर भीड़ में,
रचना नहीं वह शाम का अखबार मानना।
रक्खी गई हो शर्त जिसमें लेन -देन की,
उस प्यार को बस देह का व्यापार मानना।
लिखने लगें नाखून जब अक्षर ज़मीन पर,
तो प्यार के प्रस्ताव को स्वीकार मानना।
ये शेर कागज पर सिहाई से लिखे नहीं,
ये खून से लिक्खे हुए उदगार मानना।
उफनी नदी की धार में वह कूद ही गया,
डूबा है 'भारद्वाज' फ़िर भी पार मानना।
चंद्रभान भारद्वाज
5 comments:
भारद्वाज जी सादर प्रणाम,
लिखने लगें नाखून जब अक्षर ज़मीन पर,
तो प्यार के प्रस्ताव को स्वीकार मानना।
कुछ भी कहने लायक स्थिति में नहीं हूँ स्तब्ध हूँ मैं अदना क्या कह सकता हूँ ... बस यही के उफ्फ्फ्फ़ कमाल का है कहर बरपा दिया है ....
अपनी ग़ज़ल पे आपका आशीर्वाद चाहूँगा ...
अर्श
बहुत ही खूबसूरत रचना.......बार बार पढने को दिल कर रहा है.....
"लिखने लगें नाखून जब अक्षर ज़मीन पर,
तो प्यार के प्रस्ताव को स्वीकार मानना।"
एक और लाजवाब गज़ल सर....इन दो शेरों पे तो खास कर लाखों दाद
"जो शब्द बनते सनसनी कुछ देर भीड़ में/रचना नहीं वह शाम का अखबार मानना।स कर लाखों दाद"
और "लिखने लगें नाखून जब अक्षर ज़मीन पर/तो प्यार के प्रस्ताव को स्वीकार मानना"
आपको होली की ढ़ेर सारी रंगीन शुभकामनायें....
बहुत प्रभावशाली गजल है!!!!!!
paar ho ji, paar ho.
laali si faili hai yahan,
arun tum, subah ke asar ho.
tuk nahi baitha. par kahne mein kya harz hai.
gustakhi maaf
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