कमजोर पत्थर के बने आधार भी देखे,
ढहते हुए पुख्ता दरो-दीवार भी देखे।
ढलता न था सूरज जहाँ होती न थीं रातें,
मिटते हुए वे राज वे दरबार भी देखे।
जकड़े हुए थे प्यार की जंजीर में युग से,
इस दौर में वे टूटते परिवार भी देखे।
बाजार सब को तौलता है अब तराजू में,
फन बेचते अपना यहाँ फनकार भी देखे।
सम्मान होना था शहीदों देश-भक्तों का,
पर मंच पर बैठे हुए गद्दार भी देखे।
जो एक मृग-तृष्णा लिये बस भागती फिरती,
इस ज़िन्दगी के टूटते एतबार भी देखे।
सूखी टहनियों पर बने थे दाग पत्थर के,
उजड़े चमन ने पेड़ वे फलदार भी देखे।
लौटा शहर से गाँव तो भीगी पलक देखीं,
यादें खड़ी थीं मौन वे घर-बार भी देखे।
यह प्यार 'भारद्वाज' सदियों की कहानी है,
छलते इसे इकरार भी इनकार भी देखे।
चंद॒भान भारद्वाज
4 comments:
कमजोर पत्थर के बने आधार भी देखे,
ढहते हुए पुख्ता दरो-दीवार भी देखे।
-बहुत उम्दा!!
सूखी टहनियों पर बने थे दाग पत्थर के,
उजड़े चमन ने पेड़ वे फलदार भी देखे।
umda!!
प्रिय भरद्वाज जी /रचना बहुत अच्छी लगी /अपन ने अपने जमाने में क्या क्या देखा था व अब क्या देख रहे है ऐसा विवरण प्रस्तुत किया ही जाना चाहिए ,आख़िर अपन पुराने लोग अपनी भड़ास निकलने कहाँ जाए /घरों का तो ये आलम है की ""नए घर में पुरानी चीज़ को अब कौन रखता है ,परिंदों के लिए कूंडों में पानी कौन रखता है
वाह वाह। खूबसूरत ग़ज़ल
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