कभी दफ्तरों में कभी कठघरों में
फँसा आदमी कागजी अजगरों में
तमन्ना रही आसमानों को छूएं
मगर ठोक रक्खी हैं कीलें परों में
कहाँ से उगेगी नई पौध कोई
घुने बीज बोये हुए बंजरों में
अगर मर गईं सारी संवेदनाएं
रहा फर्क क्या वनचरों में नरों में
खड़े प्रश्न ही प्रश्न हर ओर अपने
न है कोई विश्वास अब उत्तरों में
मचलती हुई ज़िन्दगी थम गई है
नदी जैसे खोई कहीं गह्वरों में
करे राख अन्याय के हर किले को
अगन ऐसी पैदा करें अक्षरों में
जिसे खोजना था स्वयं के ही अंदर
उसे खोजता आदमी पत्थरों में
हुए हैं 'भरद्वाज'हालात ऐसे
रहें ज्यों किराए से अपने घरों में
चंद्रभान भारद्वाज
4 comments:
charcha manch par pravishti ke liye bahut bahut dhanyavaad Vandana ji
अगर मर गईं सारी संवेदनाएं
रहा फर्क क्या वनचरों में नरों में
बहुत ही सटीक शेर कहा है। पूरी ग़ज़ल पढने लायक है!
वाह क्या कहने। सदैव की तरह जिस गंभीरता से आप विषय को उठाते हैं, मैं उसका कायल हूँ। सुंदर व समीचीन गजल के लिए बधाई स्वीकारें।
bahot achchi lagi mujhe.....
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