Tuesday, May 11, 2010

हो नहीं सकता

बराबर उसके कद के यों मेरा कद हो नहीं सकता
वो तुलसी हो नहीं सकता मैं बरगद हो नहीं सकता

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले 
मैं ऐसी कोई भी कमजोर सरहद हो नहीं सकता 

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है 
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता 

लिए हो फूल हाथों में बगल में हो छुरी लेकिन 
महज सम्मान करना उसका मकसद हो नहीं सकता 

उफनकर वो भले ही तोड़ दे अपने किनारों को 
 कभी बरसात का नाला महानद हो नहीं सकता



ख़ुशी का अर्थ क्या जाने वो मन कि शांति क्या समझे
बिहंसता देख बच्चों को जो गदगद हो नहीं सकता

है 'भारद्वाज' गहरा फर्क दोनों के मिज़ाज़ों में
वो अब सत हो नहीं सकता मैं अब बद हो नहीं सकता

चंद्रभान भारद्वाज 

    

13 comments:

Unknown said...

sir,

you are great!!!!!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बेहतरीन ग़ज़ल है ... हरेक शेर लाजवाब है ...

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता

वाह क्या बात है !

Ra said...

बहुत बेहतरीन रचना .....बस निशब्द ही गया ....तारीफ़ के लिए अल्फाज नहीं है ...बहुत कम ऐसा पढने को मिलता है .......पहली बार आपके ब्लॉग पर आया ..ख़ुशी हुई ..अफ़सोस भी अबतक जो दूर था .....फिर कहता हूँ एक शानदार प्रस्तुति....हर शब्द हर पकती लाजवाब

http://athaah.blogspot.com/

arvind said...

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता
....बेहतरीन ,लाजवाब ...

Shiv said...

अद्भुत!!
जब भी आपका लिखा पढ़ते हैं तो अपने आपको भाग्यवान समझते हैं कि आपका लिखा इतनी सहजता से उपलब्ध है.

वीनस केसरी said...

बराबर उसके कद के यों मेरा कद हो नहीं सकता
वो तुलसी हो नहीं सकता मैं बरगद हो नहीं सकता


मत्ला ही कई बार पढते रहे

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले
मैं ऐसी कोई भी कमजोर सरहद हो नहीं सकता

बहुत पसंद आया

अब अगर आगे बात करूँगा तो पूरी गजल यहाँ कोट हो जायेगी :)

बस पढते हैं सीखते हैं

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता...
दीवान पर भारी है ये इकलौता शेर.

नीरज गोस्वामी said...

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता

भारद्वाज साहब प्रणाम...मतला और ये शेर...सुभान अल्लाह...बेजोड़ हैं...इनकी तारीफ़ लफ़्ज़ों में करना ना मुमकिन है...वाह वा...
नीरज ..

Udan Tashtari said...

बहुत शानदार गज़ल सर जी!!

rakeshindore.blogspot.com said...

bahut achhee gajlen aap likh rhe hain . bhut bdhaee.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीय चंद्रभान भारद्वाज जी
नमस्कार !
बहुत ही परिपक्व ग़ज़ल !
एक - एक शे'र पढ़ कर तबीअत ख़ुश हो गई ।
व्यस्तताओं के कारण विलंब से आया हूं ,परंतु अब आने के प्रयास करता रहूंगा ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

इस्मत ज़ैदी said...

बराबर उसके कद के यों मेरा कद हो नहीं सकता
वो तुलसी हो नहीं सकता मैं बरगद हो नहीं सकता

बेहद ख़ूबसूरत मतला,

जमा कर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता

हासिले ग़ज़ल शेर है ,बहुत ख़ूब!

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले
मैं ऐसी कोई भी कमजोर सरहद हो नहीं सकता

वाह ,वाह!

mridula pradhan said...

very good.